अस्मिता, अहंकार के मध्य अस्तित्व का युद्ध
- अंकित झा
यहाँ असली कसूरवार कौन है? वो लोग जिन्होंने दुष्कृत्य को अंजाम दिया, वो पुलिस वाले जिन्होंने गुमशुदा का रिपोर्ट लिखने से मना कर दिया, वो शांत खड़े मूक दर्शक जिसे समाज कहते हैं, या वो समाज सेवा के नुमाइंदे जो ऐसे दुष्कृत्य को बच्चो से हो जाने वाली गलती की संज्ञा देते हैं या फिर वो जो ऐसे बयानों को स्वीकृति देते हैं?
दूर कहीं एक वृक्ष के डाल पर, मनुष्यता गले में फंदा डाले लटकने की तयारी कर रहा है, आँखों में न जाने किस बात की शर्म है, आँखें भी खोलने को तैयार नहीं है, कहता है, कान के परदे फट रहे हैं, करूण रुदन सुनकर. सिस्कारियों की आवाज़ से रोज़ मेरे ह्रदय में आघात होता है. अब तो कलेजा फट पड़ता है, जब भी कोई अस्मिता लुटने की आवाज़ कानों में पहुँचती है तो, काँप उठता है रोम रोम मेरे शरीर का, मन करता है क्यों ये शरीर उस क्षण ही भस्म न हो गया जब मेरे ही जैसे किसी शरीर वाले ने, किसी अबला के अस्मिता को छल्ली कर दिया होगा, कैसे उस समय उसका ज़मीर न काँप गया होगा? कैसे वो अपनी बहन, अपनी पत्नी, अपनी माँ, और यदि पिता है तो अपनी बेटी से आँखें मिला पाया होगा? क्या उस जघन्य दुष्कृत्य को करते समय उनकी परछाई आँखों के सामने नाची नहीं होगी, क्या उन्होंने उसे धिक्कारा नहीं होगा, क्या बेटी उसके आँखों के सामने बिलखी नहीं होगी, क्या उसकी पत्नी के आँखों का प्रेम उसके दिल पे भारी नहीं पड़ गया होगा, क्या उसके बहन की राखी उसके गले में फंदे की तरह उसका गला नहीं घोंट रही होगी, क्या किसी कि लज्जा की धज्जियाँ उड़ाते समय उसे मनुष्यता याद नहीं आई होगी? ज़मीन खामोश है, आसमान को जरा देखिये वो रोने को व्याकुल हो रहा है, जरा कोई पूछे इन नदियों से क्यों ये अपनी मर्यादा तोड़ के बहने को तत्पर हो रही है, क्यों चहुँ ओर ऐसी अशांति फ़ैल रही है? सब कुछ समय का ही किया है, ऐसे वीभत्स कृत्य को हो जाने की अनुमति समय ने ही तो दिया है, अब सज़ा भी यही सुनाये, सज़ा क्या है, क्या मनुष्यता को अपनी हार स्वीकार कर लेनी चाहिए?
कह रहा है कि लटक जाना चाहता हूँ, जैसे कि उन दो मासूम बहनों को लटकाया गया होगा, देखना चाहता हूँ, मेरे जाने के बाद क्या स्थिति सुधर सकती है? मेरा अस्तित्व तो नाकाफी रहा है, स्थिति को सुधारने में. आँखों में वो दो बहनें अब तक छाई हुईं हैं, आम के डाल से लटकी हुयी, जिस्म के वो घाव अभी भी वेदना के बाण से ह्रदय को भेदे जा रहे हैं, किस तरह बार-बार देवियों के इस देश में, ईश्वर से भरे इस समाज में ईश्वर के ही अनमोल प्रसादों का बेरहमी से शोषण किया जा रहा है, और समाज अभी भी चुप है, न जाने क्यों पर चुप है, खामोश है, अपनी अकर्मण्यता को किसी शब्द से सर्व्नामित नहीं करना चाहते हैं, ये हादसा और भी असहनीय है, क्योंकि इस बार कानून के रखवाले भी कथित तौर पर इस दुष्कृत्य में बराबर के हिस्सेदार हैं. अति के करीब पहुँच रही हैं दुस्वारियां अब तो, जिस दिन अति पार हो गया, प्रकृति कतई शांत नहीं बैठेगी. यहाँ असली कसूरवार कौन है? वो लोग जिन्होंने दुष्कृत्य को अंजाम दिया, वो पुलिस वाले जिन्होंने गुमशुदा का रिपोर्ट लिखने से मना कर दिया, वो शांत खड़े मूक दर्शक जिसे समाज कहते हैं, या वो समाज सेवा के नुमाइंदे जो ऐसे दुष्कृत्य को बच्चो से हो जाने वाली गलती की संज्ञा देते हैं या फिर वो जो ऐसे बयानों को स्वीकृति देते हैं? दोषी कोई भी हो परन्तु पीड़ित तो सदा से कोई एक ही रहा है, उस एक के पीड़ा में समाज को लगने वाले घाव का जिम्मेदार तो समाज ही है, ये कृत्य मात्र उस वीरांगना अथवा उसके परिवार के लिए ही असहनीय पीड़ा नहीं है वरन इस समाज के लिए एक उद्घोषणा है कि उस वृक्ष पर लटकी वो लड़की कौन है, जरा उसे पहचानिए, अच्छे से देख लीजिये, देखिये न, उसका चेहरा आपकी सुपुत्री से कितना मिलता है, आश्चर्य है न ये, कितनी छोटी है ये दुनिया. जी हाँ ये विश्व बहुत छोटा है, पेड़ बहुत अधिक हैं अभी भी धरती पर, और उतने ही हैवान घूम रहे हैं, ज़रा ख़ामोशी को बरकरार रखियेगा, कहीं कोई हलकी सी खांसी भी चीख न बन जाए.
समाज में बढ़ती इस दरिंदगी के क्या कारण हैं? क्यों इस तरह कामाग्नि नित्य बढती जा रही, दरिंदगी और हवस कैसे मनुष्य के विवेक पर हावी होता जा रहा है, किस बात का डर समाप्त होता जा रहा है, मनुष्य के अवचेतन से? क्यों इसे अब डर नहीं लगता ऐसे कुछ करने में? क्या मनुष्यता इतना बेबस हो गया है, क्या विश्वास और सुरक्षा की परतें इतनी कमजोर हो गयी हैं? समाज में ये असुरक्षा इतना कैसे बढ़ गया है? कामेच्छा व सुरक्षा के मध्य का ये संघर्ष इतना नाजुक कैसे हो गया है? अब और क्या होगा, कई दिनों तक न्यूज़ चैनल पर दिन भर इसके रिपोर्ट छपते रहेंगे, कुछ नए केस रोज़ लाये जायेंगे, राजनेता आते जाते रहेंगे मिलने को पीड़ित परिवार से, महिला आयोग से समाजसेविकाएं इस्पे घंटों बहस करती रहेंगी, कुछ और नए स्त्रीवादी विमर्शक जन्म लेंगे, जैसे मेरा कलम खून उगल रहा है, तत्पश्चात सब कुछ सामान्य हो जायेगा. इतना सामान्य कि इस देश से बेहतर कोई धरती नहीं होगी निवास करने को, लेकिन ऐसे ही करूँ रूदन नित्य समाज में सिसकती रहेगी, किसी के कान में पहुँच भी गयी तो अनसुना कर देगा, तब तक मोमबत्ती का पावन पर्व मनाते रहने दिया जाए, अच्छा लगे या बुरा परन्तु, मनुष्य अब असहिष्णु हो गया है. हृदय में प्रण नहीं, इच्छा नहीं, दर्द नहीं मात्र विस्मृति शेष रह गया है, जो भी हो भूल जाओ, बेहतर रहेगा. कभी हमारे साथ ऐसा कुछ होता जो नहीं है. इसका समाधान ढूंढने का समय अब किसी के पास नहीं मात्र एक प्रश्न करने का समय है, ये टीवी वाले रोज़ इतना ही क्यों दिखाते हैं? क्या करें हमारे आँखें सत्य से चौंधिया क्यों जाती है, आपको यदि पता चले तो बताइयेगा, मैं मनुष्यता को बचाने का प्रयत्न करता हूँ.
![]() |
Ankit Jha (Student, University of Journalism) Contact- 9716762839 E-mail- ankitjha891@gmail.com |
No comments:
Post a Comment