Friday, 1 August 2014

सत्य वचन


लापरवाही तथा समस्या के मध्य 

                            - सत्यानन्द यादव 

बिमारी भी सरकारी और खर्च भी. भुगता किसने? सरकारी अस्पताल के सुविधाओं से अनभिज्ञ मरीज मजबूर हो दिन काटते रहते हैं. न ज़िन्दगी की उम्मीद न मौत की चाहत.

पिछले तीन वर्षों से मैं शाहदरा के निकट विश्वास नगर में रह रहा हूँ. जब मैं यहाँ आया था उस समय यहाँ आबादी काफी कम थी, ऐसे में बिमारियों तथा बीमारों की संख्या भी कम थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह आबादी बढ़ी है, उसे संख्या में व्यक्त नहीं किया जा सकता है. आबादी के मुकाबले सुविधाएं उतनी तेजी से नहीं बढ़ पायी है. इलाके की गन्दगी किसी वर्णन का मोहताज़ नहीं है, गंदगी के कारण सैकड़ों बीमारियाँ अपने पैर पसार चुकी है. खास कर बरसात के मौसम में तो ये इलाका किसी नरक से कम प्रतीत नहीं होता है. इलाके की नालियों की सफाई कभी नहीं होती है, और बरसात के दिनों में पानी भरने से सड़क का पानी घरों में घुस जाता है. ये पानी नाली तथा बरसात के पानी का संगम होता है, जो घरों में बीमारयों के निमंत्रण के साथ प्रवेश करती है. न किसी को इलाके में साफ़-सफाई की सुध है और ना ही बरसात के दिनों में होने वाली बिमारियों की. इस पानी में जीवाणु की संख्या भी काफी अधिक होती है, साफ़ पानी के संपर्क पर डेंगू के मच्छर को जन्म देते हैं. तो कहीं गंदे पानी में मलेरिया के मच्छर पैदा हो जाते हैं.

असली लापरवाही शुरू होती है, जब बीमार को अस्पताल लेकर जाया जाता है. डॉक्टरों द्वारा मरीज के मन में डेंगू का खौफ पैदा कर दिया जाता है, इतना खौफ की वो अपने अंतिम समय का दर्शन करने को विवश हो उठता है. एक स्वस्थ मानव के शरीर में प्लेटलेट्स की संख्या तो घटती-बढती रहती है, इस घटने को डॉक्टर जम कर इस्तेमाल करते हैं, मरीजों को मूर्ख बनाने के लिए. बरसात के प्रारंभ से ही डेंगू-मलेरिया का डर इस तरह मरीज के मन में बिठा दिया जाता है, कि हर बुखार स्वतः ही डेंगू या मलेरिया हो जाता है. अस्पताल प्रशासन का मरीजों के प्रति रवैये का अब क्या कहना. मजबूरी को इस तरह अपना हथियार बना कर, अपनी जेब तन्दरुस्त कर लेते हैं. अर्थात चिट भी अस्पताल की और पट भी. बिमारी भी सरकारी और खर्च भी. भुगता किसने? सरकारी अस्पताल के सुविधाओं से अनभिज्ञ मरीज मजबूर हो दिन काटते रहते हैं. न ज़िन्दगी की उम्मीद न मौत की चाहत. जिला अस्पताल का रुख वैसे हो गरीब ही करते हैं. अस्पताल के व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाना अनिवार्य हो जाता है, जब मरीजों को आश्रय देने हेतु पर्याप्त बिस्तर तथा डॉक्टर नही हो पाते हैं. हालात ये हो जाते हैं कि मरीजों को या तो ज़मीन पर आश्रय दिया जाता है या भर्ती करने से ही मना कर देते हैं. यह एक सच्चाई है, हमारे तेजी से बढ़ते देश के राजधानी की.

 जब जलजनित रोग ना हो, तब डेंगू अपने दंश से सभी को डराए रखता है, और उस समय स्थिति और भी विकराल हो जाती है. डेंगू दस लोगों को होता है, और मरीजों की संख्या सैकड़ों बताई जाती है. यदि इस तरह मरीजों की संख्या बढ़ने लगे तो यह भी डॉक्टरी पेशे पर एक धब्बे की तरह ही है. एक महत्वपूर्ण बात और, शहर के कई इलाके ऐसे हैं, जहां बरसात के दिनों में हफ़्तों तक जलभराव रहता है. उसके निकासी की कोई व्यवस्था ही नहीं की गयी है और ना ही बीमारी वाले मच्छरों के रोकथाम की. स्वास्थ्य विभाग भी न जाने क्यों बिमारी के फैलने तक सजग होने का इंतज़ार करती है. हालाँकि अस्पतालों में जागरूकता के लिए प्रयास किये जाते हैं, जो कि नाकाफी है. मरीज़ परेशान हैं, धोखों से, लापरवाही से, महंगाई से, डॉक्टर के रवैये से. इस रात की कोई सुबह नहीं. डेंगू हुआ है, ईश्वर से प्रार्थना करो कि सामने वाले डॉक्टर को ईश्वर की याद आ जाए और ईश्वर के लिए मरीज़ को बख्श दे..

पुनश्च:- बरसात तो हर वर्ष होती है, बिमारी भी. बिमारी को रोकना होगा, बरसात को नहीं. 

Satyanand Yadav
Student, University of Delhi
9718152670
satyamac.du@gmail.com

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