सिविल परीक्षाओं में भाषा का महत्त्व
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अंकित झा
बात भाषा को उसके अधिकार मिलने का नहीं है वरन
बात उस ऐतिहासिक दुष्कृत्य का है जो कभी किया गया था. ये वो दुष्कृत्य था जिसका दंड
कई पीढ़ियों ने भुगता अब समूची व्यवस्था भुगत रही है. प्रश्न अंग्रेजी के प्रभुत्व
का तो है ही नहीं, और न कभी था. प्रश्न है, अपने देश की गरिमा का. जिसे पीछे छोड़ने
का दुस्साहस किया गया है, आज से नहीं सदियों से. अपने गौरव को माटी के भाव तौलने
के दोषी कौन? हम. अतः अंग्रेजी हम पर हावी नहीं हुआ, वरन हमने उसे गले लगाया.
आदर्श
के अंत से विनाश का प्रारम्भ होता है. फिर वो कोई सा भी आश्रम हो, समाज में एक
सत्य निहित है कि अपने कर्म पर किसी की तानाशाही नहीं सहनी चाहिए. भारतीय समाज के
प्रारम्भ से ही जीवन में आश्रम के महत्त्व को समझाने व मनुष्य के समाज से सम्बन्ध
स्थापित करने में इसकी महत्ता को बरकरार रखने का प्रयास किया है. रामायण को ही ले,
गुरु वशिष्ठ के वचन सुन राम के अन्दर समाज का मोह समाप्त हो गया, सभी लालसाएं मिट
गयी, ना राज करने की इच्छा और ना ही राजमहल में निवास करने की. युवा राम के वैभव
के प्रति इस उपेक्षा से दशरथ भयभीत रहा करते. दोष किसका था? अवश्य ही गुरु वशिष्ठ
का. शिक्षा देने में इतना अनुभव होने के बावजूद भी, राम को जीवन दर्शन में कर्म के
प्रभाव को समझाने में विफल रहे थे, सिर्फ धर्म तथा कामनाओं से मुक्ति की ही शिक्षा
दे पाएं. राम से समाज को काफी आशाएं थी, शिक्षा की अपूर्णता आशाओं के वध की ओर
बढती दिखी. गुरु विश्वामित्र आयें,राम को जीवन दर्शन भी बताया, कर्म की सिद्धि को
भी बताया, अस्त्र ज्ञान भी दिया, निपुण भी किया, तथा अभ्यास हेतु अपने साथ वन भी
ले गये जहां राक्षस उनके यज्ञ में बाधा डाला करते थे, वहाँ पर उन्होंने राक्षसी
ताड़का का वध भी किया. चूँकि धर्म के अनुसार स्त्री का वध एक अपराध है परन्तु गुरु
विश्वामित्र के समझाने के पश्चात् वो इस बात को तैयार हुए की समाज हित में किया
गया कर्म कभी अधर्म नहीं हो सकता. अतः शिक्षा के सभी पहलुओं से उन्होंने अपनी राह
सुनिश्चित की. अब उनके अन्दर जीवन के प्रति प्रेम भी था, विलासिता के प्रति
उपेक्षा भी, कर्म की समझ तथा धर्म का ज्ञान. और किसी विद्यार्थी को क्या चाहिए?
आज
की शिक्षा व्यवस्था से तनिक तुलना कीजिये, क्या यहाँ कर्म की समझ देने का प्रयास
होता है, या धर्म का ज्ञान दिया जाता है, विलासिता की उपेक्षा तो दूर की बात,
सांसारिक पण्यों में इस तरह विद्यार्थी को लिप्त कर दिया गया है कि अब यदि इस गड्ढ़
से निकले तो सामने महागड्ढ़ फैला है. महागड्ढ़ का अर्थ होता है, सरिता के सफ़र का वह
समय जब एक ऊंचाई से निरंतर गिरने के पश्चात् उस जगह पर एक बहुत बड़ी खड्ड बन जाती
है, विद्यार्थी जीवन भी यही है, एक ही तरह की शिक्षा प्राप्त करते करते 16 वर्ष के
अपने किशोर आश्रम में अपने मन में एक अजीब सी महागड्ढ़ निर्मित कर लेता है. ये खड्ड
विलासिता तथा सांसारिक उपेक्षाओं के किले पर निर्मित होता है. भारत को एक परिवर्तन
चाहिए, शिक्षा के क्षेत्र में, शिक्षण के क्षेत्र में, शैक्षणिक गुणवत्ता के
क्षेत्र में. कर्म व धर्म के मध्य झूलती शिक्षा व्यवस्था किसी टूटी हुई डोर के
आखिरी सिरे को पकड़े लटकता सा प्रतीत होता है. विद्यार्थी होनहार है, परन्तु लाचार
है, एक नई पीढ़ी का ऐसा अनावरण!! हे शिव! गाय के निबंध से जीवन शुरू करने वाला
विद्यार्थी आज कंप्यूटर में निपुणता ले लेता है परन्तु शिक्षा के तीन प्रमुख
उद्देश्य लेखन, वाचन तथा स्मरण को समझने में नाकाम रहता है. किसी समाज को और क्या
चाहिए? एक ऐसा भविष्य जो समस्याओं से पूर्व उसका समाधान जानता हो, परन्तु नई पीढ़ी
तो समस्याओं से भी अनभिज्ञ है तथा समाधान से भी. अंतर्मन तो दूर ह्रदय में झाँकने
को कोई तैयार नही, कैसे चेतना का विकास किया जाए, कैसे संसार को हम उदाहरण दे
सकेंगे, कि क्या पीढ़ी रची है हमने!
पीढ़ी
रचने में कहीं चूक तो नहीं हो रही है हमसे? कभी कभी सोंच के रूह काँप उठता है कि
इस देश के भविष्य का क्या होगा यदि यही हालात रहे तो. ऐसी पीढ़ी जो हालात को बदलने
पर नहीं वरन अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करती है. अनुकूलता कतई बुरी बात नहीं है,
परन्तु ऐसे समय में जब दौर प्रतिस्पर्धा से कई कोस आगे निकल चूका है उस समय ऐसे
उदाहरण प्रस्तुत करना लज्जित करती है. बात भाषा को उसके अधिकार मिलने का नहीं है वरन
बात उस ऐतिहासिक दुष्कृत्य का है जो कभी किया गया था. ये वो दुष्कृत्य था जिसका दंड
कई पीढ़ियों ने भुगता अब समूची व्यवस्था भुगत रही है. प्रश्न अंग्रेजी के प्रभुत्व
का तो है ही नहीं, और न कभी था. प्रश्न है, अपने देश की गरिमा का. जिसे पीछे छोड़ने
का दुस्साहस किया गया है, आज से नहीं सदियों से. अपने गौरव को माटी के भाव तौलने
के दोषी कौन? हम. अतः अंग्रेजी हम पर हावी नहीं हुआ, वरन हमने उसे गले लगाया. और
आज भी उसके तलवे चाट रहे हैं, यह रिश्ता ग़ुलामी कब बन गया, किसी को ज्ञात नहीं.
परन्तु सत्य तो यही है. हमारी भाषा अंग्रेजी हो, कोई दुःख नहीं परन्तु हमारी सोंच
अंग्रेजी नहीं होनी चाहिए. परन्तु मनुष्य तो मनुष्य ठहरा, जिस भाषा में बोलता है
उसी में सोंचने भी लगता है. हमारी सोंचने की भाषा भी अंग्रेजी हो गयी, फिर यह तो
घुलामी ही हुई न?
हालिया
उदाहरण ले, यूपीएससी के परीक्षा में भाषा तथा सीसैट को लेकर हुए विवाद में मसला जो
सामने आया हो परन्तु, बात इतनी खटक गयी कि अनिवार्यता के नाम पर अंग्रेजी को बढ़ावा
दिया जाने लगा. सीबीएससी के दसवी के बाद के प्रकरण को कौन नहीं जानता, या फिर कहें
कि आठवीं के बाद के प्रकरण को. अंग्रेजी अनिवार्य परन्तु हिंदी नहीं. कोई बात
नहीं. उतना उचित था परन्तु, यह दौर किसी भाषा को बढ़ावा देने का नहीं बल्कि अपनी
भाषा के संरक्षण का है. अंग्रेजी विदेशी नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय भाषा है. अंग्रेजी
सीखना अंतर्राष्ट्रीय बनना है. अंग्रेजी को बढ़ावा देकर हम अवश्य ही अपने विदेशी
रिश्तों को संवार सकते हैं. मैथिली में एक कहावत है, “पेट में खर नइ, सिंग में तेल”
जिसका अर्थ ये हुआ कि अपने मवेशी को खाना भले ही न दे परन्तु उसके सिंग में जरुर
तेल लगाते रहा जाए. खाने को भोजन हो न हो परन्तु ठाठ बाठ में कमी नहीं आनी चाहिए.
अजीब बात है न, गुर्दे खराब परन्तु मूंछों के ताव में कोई कमी नहीं. अंग्रेजी
सीखना अच्छी बात है, अंग्रेजी को अपनाना और भी अच्छी बात है परन्तु यदि उसकी कीमत
हिंदी का वध है तो कतई नहीं. हमारे देश में 80 के दशक तक हिंदी में पीएचडी शोध कार्य देने की अनुमति नहीं थी, अफ़सोस. फिर
अनुमति प्राप्त हुई, परन्तु यह अनुमति नाकाफ़ी रही. यह कोई मुहीम नहीं है, हिंदी को
बचाने हेतु, बल्कि एक प्रयास है, भाषा की सार्थकता को कायम रखने हेतु. ये आन्दोलन
मात्र दिल्ली में ही हिन् हो रहे हैं वरन इलाहाबाद, बेंगलुरु, हैदराबाद आदि शहरों
में भी आन्दोलन की सुगबुगाहट है.
अब
प्रश्न कि सिविल परीक्षाओं में भाषा का क्या महत्त्व? महत्त्व है, जिस समाज से हम
आते हैं, जहां पर प्रधान सेवक सेवा के लिए जाते हैं, उसे समाज की आत्मा कहते हैं,
अंग्रेजी उस अपनेपन को समझा नहीं आती है. ऐसे आन्दोलन से भाषा को उसका अधिकार
मिलने से रहा. पिछले वर्ष के नतीजे देखे जाए, 1122 चुने हुए परीक्षार्थियों में
हिंदी पृष्ठभूमि वाले नाममात्र के बचे हैं, वही अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ से चयनित
विद्यार्थियों की संख्या 30 से भी कम रही जिसका सीधा अर्थ ये है कि कहीं न कहीं तो
कमी है. ये कमी कहाँ है इसका पता लगाना होगा. ये कमी 2011 के बाद ही क्यों उत्पन्न
हुआ है? 2011 में नयी व्यवस्था के आने के
बाद से ही विद्यार्थियों में असंतोष बढ़ने लगा था, कारण स्पष्ट है कि विद्यार्थियों
अनुभूति के साथ मज़ाक किया गया. सीसैट का अर्थ ‘सिविल सर्विसेज एप्टीटूड टेस्ट’ है,
छात्रों का लक्ष्य है इस टेस्ट को हटाने की. यह टेस्ट मानसिक कुशलता, बौद्धिक
रुझान तथा सामान्य ज्ञान के परीक्षा. परन्तु मूलतः अंग्रेजी में तैयार हुए इस
प्रश्नों का अनुवाद इतना खराब होता है कि छात्र उसे समझ ही नहीं पाते हैं. तथा 200
अंकों के प्रश्न पात्र में लगभग 30 अनिवार्य अंक अंग्रेजी के होते हैं, जिसपर की छात्रों
को ऐतराज़ है. क्या युएनओ से आई किसी चिट्ठी का
महत्त्व देश के भूखे किसान के गुहार से अधिक महत्वपूर्ण है? यूँ तो सरकारी सेवकों
को टाइपिंग का भी काम पड़ता है, तो क्या टाइपिंग का भी टेस्ट लिया जाए, क्या उन्हें
ड्राइविंग आना भी अनिवार्य होना चाहिए. यह सब एक भौकाल है, जिसे भ्रामकता की तरह
फैलाया जा रहा है. इन कामों के लिए अब तक कुछ अन्य लोग रोज़गार में लगाया जाता रहा
है, एक और काम के लिए बढ़ जाएगा. अंग्रेजी का अनुवादक रख दिया जाएगा उस एक चिट्ठी
के लिए, एक चिट्ठी के लिए क्या छात्रों के भविष्य से खेलना उचित होगा? अब समय है
कि इस तरह के अनियमितताओं को दूर कर भाषा के सही स्वरुप को दर्शन देने हेतु बाध्य
किया जाए. हमें आवश्यकता है, गुरु विश्वामित्र की, जो देश में राम जैसे शिष्य पुनः
ला सके जो सेवा के नए आयाम गढ़ सके.
Ankit Jha Writer, Student, University of Delhi 9716762839 ankitjha891@gmail.com |
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