डोर
- मनीष पंडित
पिताजी के चश्मे
पर चढ़ी हैं परतें
वर्षों के अनुभव की
सघन इतनी हैं कि
देख नहीं पाती हैं
उदय नवयुग के सूरज का
पीढ़ियों के अंतर
इक छोर पर पिता
दूसरे पर संतान
मिल ही नहीं पाती
दो धाराएं एक ही
जीवन सरिता की
दो सभ्यताएं
दो संस्कृतियां
साँस लेती हैं
एक ही छत के नीचे
टकराती हैं, झगड़ती हैं
फिर भी अलग नहीं होती
छोर अलग होने से
डोर खंडित नहीं होती ।
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Manish Pandit Poet, Writer & Teacher 9993173208 shourya.man.mp@gmail.com |
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