Tuesday, 22 July 2014

विद्रोही विचार



क्यों आखिर क्यों?

                                                - विनीत वर्मा 

क्या मनुष्य को मनुष्य के अंत का अधिकार होना चाहिए? यदि हमें जीवन का मौलिक अधिकार है, तो मृत्यु का क्यों नहीं? जो कार्य उसका जीवन नहीं कर पाया मृत्यु क्या कर पायेगा? एक मनुष्य के साथ उसके कई रिश्ते मरते हैं, कई सपनें मरते हैं. आत्महत्या एक जुर्म है तथा इच्छामृत्यु एक पाप.

किसी भी काव्य में किये जाने वाले वर्णन से कई सुंदर है, मानव जीवन. ईश्वर की सबसे उत्तम कृति, विश्व इतिहास की सबसे प्रगतिशील प्रजाति, मनुष्य. सभी से उत्तम, सभी में श्रेष्ठ. जितनी सुन्दरता से ईश्वर ने मानव की रचना की है, उससे कई अधिक निर्दयता से मानव के विधान को रचा गया. क्लेश, सत्य, हिंसा, धर्म, कर्तव्य, पीड़ा, सुख आदि. आदी से अनादि तक. सर्वदा. सभी मानव के जीवन का हिस्सा होती हैं, ये सब. भाग्य का निर्माण करके भेज तो दिया इस मृत्युलोक में परन्तु भाग्य का सामना करने की क्षमता सब में अलग अलग विकसित की. तभी तो कुछ असफलताओं से हार ना मानकर आगे बढ़ते हैं तो कुछ इसकी पीड़ा से तड़पते रहते हैं, कुछ कष्ट सहन नहीं कर पाते और इहलीला समाप्त कर लेते हैं. क्यों करते हैं लोग आत्महत्या? क्यों स्वयं ही ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ कृति का विनाश कर देते हैं. क्यों अपने इस अनमोल जीवन का कद्र नहीं कर पाते हैं? क्यों इस सुंदर दुनिया को इस तरह त्याग देते हैं?

आत्महत्या के कई कारण हैं, कई. परन्तु कोई भी कारण ऐसा नहीं कि मनुष्य को ईश्वर  के द्वारा दी गयी ज़िन्दगी छीनने का अधिकार दे दे. ज़िन्दगी मिटाने का. कोई भी ऐसा कारण नहीं है कि जो मनुष्य को इस दुनिया से इतनी दूर ले जाने की अनुमति देता हो. काफी दूर. इतनी दूर कि एक माँ की बूढी आँखें भी उसे ढूंढ नहीं पाती, वो माँ जिसके आँचल कभी उसके आंसुओं से भींग गये थे, आंचल को देख के आंसू बहाने पर विवश हो रही है. वो माँ जिसने कभी हाथों से बच्चे को खाना खिलाया था, कभी छाती से लगाकर सुलाया था, आज वही उन्ही हाथों से अपनी छाती पीट पीट कर रो रही है, उसकी ममता आज रूक ही नहीं पा रही है, बार बार छलक आती हैं. पत्नी की वो नाम आँखें जो उसे ढूंढती रहती हैं, तो कभी पिता के वो झुके कंधे जिसपे बैठके दुनिया की भीड़ में उसने पहली बार प्रवेश किया था. जीवन एक संघर्ष है, सब जानते हैं. संघर्ष में किसी हार का अर्थ कतई मृत्यु तो नहीं हो सकता.

क़र्ज़ के बोझ तले दबा किसान, पढाई में पिछड़ चूका छात्र, जिम्मेदारी न निभा पाने वाला पिता, प्रेम में हरा प्रेमी सभी अपने जीवन को मूल्यहीन समझ लेते हैं. आत्महत्या के साथ साथ एक नया शिगूफा इच्छा मृत्यु भी समाज में छोड़ा जा रहा है. 2011 में अरुणा शान्बाग के याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ये निर्देश दिए थे कि भारत में इच्छामृत्यु को वैद्य न किया जाए. वहीँ पिछले कुछ दिनों में फिर से यह मुद्दा तूल पकड़ता दिख रहा है. आत्महत्या तथा इच्छामृत्यु में काफी अंतर है, परन्तु दोनों की ही अनुमति किसी जीवन के समाप्ति से होती है जो मानवता की कसौटी पर पूर्णतः गलत है. संजय लीला भंसाली की फिल्म, "गुजारिश" जिसमें इच्छामृत्यु अर्थात यूथनेसिया के मुद्दे को उठाया गया था. इस फिल्म में यूथेनेसिया को नैतिक रूप से सही भी ठहराया गया, जिसके खिलाफ कई शिकायतें भी की गयी. क्या मनुष्य को मनुष्य के अंत का अधिकार होना चाहिए? यदि हमें जीवन का मौलिक अधिकार है, तो मृत्यु का क्यों नहीं? जो कार्य उसका जीवन नहीं कर पाया मृत्यु क्या कर पायेगा? एक मनुष्य के साथ उसके कई रिश्ते मरते हैं, कई सपनें मरते हैं. आत्महत्या एक जुर्म है तथा इच्छामृत्यु एक पाप. भले ही इसे यथासंभव कैसे भी तर्क के साथ प्रस्तुत किया जाए नैतिक रूप से गलत है.

मनुष्य इन सब बातों से अवगत है, परन्तु विनाश के प्रहर में कब उसने चेतना से काम लिया है? दुनिया में कोई भी गलती असफलता ऐसी नहीं जिसके लिए आत्महत्या सर्वश्रेष्ठ प्रायश्चित्त हो. इस सोंच में परिवर्तन लाना होगा, क्योंकि मानवता कभी मानव पर बोझ नहीं बननी चाहिए. करुणा से बढ़कर कोई सफलता नहीं होती, माँ की गोद में यदि उसके बेटे का मृतशरीर पड़ा हो तो उस पीड़ा का वर्णन कोई भी नहीं कर सकता है.

पुनश्च : - असफलता एक चुनौती है, आत्महत्या बुज़दिली. सफलता एक चाहत है, आसानी से कहाँ मिलती है, कुछ दिन तो बिताओ प्रयास में.    

Vineet Verma
Student, University of Delhi
9899472819
vineetcool94@gmail.com

1 comment:

  1. बहुत अच्छा लिखा है दोस्त । आसानी से कहाँ मिलती है, कुछ दिन तो बिताओ प्रयास में.

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