Tuesday, 1 July 2014

Ankit: The Author of Atrocities


पूंजीवादी पक्षाघात से पीड़ित 

                                                                                                - अंकित झा

जश्न की आपाधापी में ऐसी कुर्बानियां तो होती है रहती हैं. खेल के ऐसे महाकुम्भ में अपने तो बिछड़ते ही रहते हैं, किसका शोक मनाएं. जीत का जश्न मानते हैं, ये लेखक तो लिखता ही रहेगा.

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृतः
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुनैह.. 

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय  प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है. 
                 - श्रीमद्भग्वद गीता; [अध्याय ३, श्लोक ५]

परिवर्तन एक जूनून है तथा प्रयास एक बिमारी. परिवर्तन प्रयास से होता है अर्थात जूनून किसी बीमारी की तरह होता है. साधारण मनुष्य हो या मनुष्य द्वारा चुने गये उनके नुमाइंदे, एक बार जूनून के पक्षधर हो गये तो फिर पार पाना मुश्किल हो जाता है. लैटिन अमेरिकी देश ब्राज़ील में फुटबॉल एक जूनून है, यह एक खेल मात्र नहीं है. वहाँ के लोग इस खेल को पुजते हैं. ब्राज़ील के धडकनों में फुटबॉल ही धड़कता है, साँसों में वायु बन के, रगों में खून बनके, आँखों में चमक बन के, दिलों में हौसला बनके और जज़्बात की पराकाष्ठा पर फुटबॉल ही रहता है. फुटबॉल का अध्यात्मिक केंद्र ब्राज़ील है. मंदिर में यदि ईश्वर का विरोध होने लगे, प्रसाद की उपेक्षा होने लगे, तो कैसा लगेगा. ठीक वैसा ही हो रहा है, इस समय ब्राज़ील में. हाँ ब्राज़ील में 2014 फुटबॉल विश्वकप का विरोध हो रहा है, ये विरोध आज से नहीं, एक वर्ष से भी पहले से हो रहे हैं. 2013 कॉन्फ़ेडरेशन कप से चला आ रहा विरोध अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा है. परन्तु ना ही ये खेल अर्थात धर्म का विरोध है और न ही ईश्वर अर्थात खिलाडियों का विरोध है. विरोध की वजह है, खेल से जुड़े आडम्बर. हिंदी में एक कहावत है, तेतें पाँव पसारिये जेती लम्बी छाँव, जिसे अंग्रेजी में कहते हैं, वियर योर कोट अकोर्डिंग टू योर क्लॉथ. मतलब स्पष्ट है कि हैसियत के मुताबिक ही प्रयास करनी चाहिए, परन्तु ब्राज़ील के साकार का दुस्साहस तो देखिये, लगातार 2 वर्षों में विश्व क्व दो सबसे बड़े खेलों के आयोजन का भार उठा लिया है.

Photo Courtesy- i.Telegraph.co.uk
 2014 का फीफा विश्वकप तथा 2016 का ओलंपिक खेल. इन आयोजनों पर पैसा पानी की तरह बहा दिया जाएगा, ऐसी आशा है. जिसमें एक आशंका तो सच हो गयी तथा सवा 11 अरब डॉलर के खर्च पर फुटबॉल विश्वकप का आयोजन किया जा रहा है, कमाई हो भी जाए पर इतनी भरपाई नहीं हो पाएगी. ब्राज़ील की वामपंथी सरकार ने पूंजीवादियों के जाल में फंसकर जो जनता के हितों को टाक पर रखकर फैसला लिया, उसका विरोध होना तय था. जब ब्राज़ील को खेल के आयोजन की मेजबानी मिली उस समय बजट में खर्च 1 अरब डॉलर तय किया गया था, परन्तु फीफा के स्टैण्डर्ड की भरपाई करते करते, पैसों की फ़िज़ूलखर्ची की गयी. मन में एक ही सपना था कि चीन की तरह अपने विश्वशक्ति बनने की उद्घोषणा खेल आयोजन से करना है. एक उदहारण के परिणाम इतने भयावह होने वाला था, उन्हें पता नहीं था. समूचा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा है, जिस समय देश में पूँजी निवेश को बढ़ावा देना चाहिए उस समय ओने अर्थव्यवस्था को ऐसा अनर्थ करने के लिए प्रोत्साहित करना अवश्य अनुचित है. यदि ब्राज़ील ने चीन का उदाहरण लिया तो तीन अन्य उदाहरणों पर ध्यान क्यों नहीं दिया? जिसमें यूनान(ग्रीस),भारत तथा दक्षिण अफ्रीका का भी तो उदहारण उसके समक्ष था. 2004 के एथेंस ओलम्पिक के बाद जिस तरह ग्रीस की अर्थव्यवस्था औंधेमुंह गिरी है, कि आजतक संभल नहीं पायी है. यहाँ तक कि डिफ़ॉल्ट होने के कगार पर पहुँच गयी थी, भारत में 2010 कामनवेल्थ खेलों का आयोजन किस तरह देश की राजनीती को उथल पुथल कर गया तथा, दक्षिण अफ्रीका में हुए 2010 फीफा विश्वकप के पश्चात देश में स्टेडियम अब किसी काम नहीं आते हैं, और न ही आयोजन से उस देश में खेल की स्थिति ही सुधर पायी. ब्राज़ील ने अपने ही सामान अर्थव्यवस्थाओं से कुछ नहीं सीखा. और जो उदाहरण से नहीं सीखते वो सदा से ही इतिहास में अपने नाम को शर्मसार ही करते आये हैं. हालाँकि आयोजन के निर्माण में अब तक भारत की तरह धांधली व घोटाले सामने नहीं आये हैं, परन्तु ये समय की बात है. वर्कर्स पार्टी की सरकार जो वर्षों से जनता के समर्थन पर चलती आ रही है, किस तरह जनता के असंतोष को शांत कर पाएगी. देश में आधारभूत संरचना की स्थिति भी इतनी मजबूत नहीं है उस पर से इस तरह संसाधनों का दोहन, किस लिए सिर्फ स्टैण्डर्ड पे खरा उतरने के लिए. फीफा इस बात से आश्वश्त दिख रहा है कि आयोजन से कमाई भरपूर हो जाएगी परन्तु रोटी के लिए संघर्ष करते ब्राज़ील के लोगों पर ये आयोजन काफी भारी पड़ा है. आयोजन के लिए अलग अलग शहरों में 12 स्टेडियम बनवाए गये, उच्च तकनीक व फीफा के स्टैण्डर्ड के मुताबिक. खेती के ज़मीनों पर ये स्टेडियम तैयार किया गये, जिनका विश्वकप के बाद कोई ख़ास काम रह नहीं जाएगा. इन ज़मीनों के अधिग्रहण के बदले दिए गये हर्जाने से भी लोग खुश नहीं हैं. कोई भी हर्जाना किसान को उस ज़मीन की असली कीमत नहीं दे सकती. भव्य आयोजन, मोटी कमाई, अध्यात्मिक केंद्र, विरोध, विरोध का दमन, असंतोष तथा आने वाले तूफ़ान से निपटने की तैयारी. ब्राज़ील को पक्षाघात हो गया है, सीधे शब्दों में कहूं तो लकवा मार गया है, अंग काम नहीं करता, यहाँ पूंजीवादी पक्षाघात है, दिमाग काम नहीं कर पा रहा है. देश के गरीब के सपनों के ऊपर उन्मादी हो-हल्ला मच रहा है, अन्दर गोल दागे जा रहे हैं, सडकों पर गोली. गोल न लग पाने से दर्शकों में असंतोष है, सडकों पर विद्रोहियों में. हास हो रहा है, खेल की साख का. किसी खेल की कीमत देश की जनता से बढ़कर नहीं होती. उनके सपनों से बढ़कर नहीं होती. फिर जब एक वामपंथी सरकार ऐसा करे तो अचरज होता है. उमंग और उन्माद में अंतर नहीं पहचान पायी सरकार. खामियाजा भुगतना पड़ेगा, चुनाव भी आने ही वाले हैं. 

ऐसा सिर्फ ब्राज़ील में ही नहीं होता, हमारे देश में भी होता है. याद आता है, 2011 क्रिकेट विश्वकप का फाइनल. मुंबई, भारत शानदार तरीके से जीत गया था, वानखेड़े स्टेडियम के बाहर भीड़ उन्मादी हो गयी, जश्न का ऐसा रूप कभी देखने को नहीं मिला था, इतनी भीड़, उस पर से जश्न का उन्माद, तीन बच्चे गिर गये, कितने ही लोग उनपर चढ़ गये, वो स्टेडियम में नहीं ये थे. वो तो बीमार नानी को देखने जा रहे थे अपने पिता के साथ. 2 बड़े थे उठ गये, एक नहीं उठ पाया, जश्न के नीचे दब गया. उसके पिता ढूँढने के लिए पागलों की तरह नीचे झुकने लगा, लोग बधाई देने के लिए उसे गले लगा लेते. किस बात की बधाई, उसका छोटा बेटा यहीं कहीं दब गया है. वो बेटा फिर कभी नहीं मिला, विश्वकप का उपहार. जीत के बाद युवराज रोया था, यहाँ एक पिता के आंसू नही दिखे. जीत के बाद सचिन को कन्धों पर उठाया, कोई उसके बेटे को भी उठा लो, जीत के बाद धोनी ने बाल कटवा लिए, उस पिता ने भी कटवाए थे. धोनी को कप मिल गया, पिता को उसका बेटा नहीं मिला. जश्न की आपाधापी में ऐसी कुर्बानियां तो होती है रहती हैं. खेल के ऐसे महाकुम्भ में अपने तो बिछड़ते ही रहते हैं, किसका शोक मनाएं. जीत का जश्न मानते हैं, ये लेखक तो लिखता ही रहेगा. बेटे तो पैदा हो जाया करेंगे, कप फिर कब जीतेगा भारत, वो भी भारत में, मरीन ड्राइव के किनारे जश्न मनाने का ऐसा अवसर फिर कब मिलेगा. 

Ankit Jha
Student, University of Delhi
9716762839
ankitjha891@gmail.com

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