Monday, 26 May 2014

लोकतंत्र से दूर बैठा अतिवादी मिस्र !


मिस्र की सेना के अब्दुल फ़तेह-अल-सीसी ने वर्ष २०१३ में लोकतंत्र को और मजबूत बनाने का वायदा कर मोरसी की लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट किया लेकिन उनकी तानशाही प्रवृतियों ने मिस्र को लोकतंत्र से और दूर कर दिया है. पिरामिडों के देश की डगमगाती हुई राजनीति की मीमांसा करते हुए विशांक सिंह!

कुछ एक वर्ष बाद मैं इस विषय पर दुबारा अपने विचारों को अंकित करने बैठा हूँ और इस बात पर बड़ा आश्चर्य हो रहा है की इस लेख की शुरुआत वहीँ से कर रहा हूँ जहाँ पिछला लेख समाप्त किया था. मैं बात कर रहा हूँ उस देश की जहाँ बरसों पहले एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया था. बुहत बड़ी जीत थी वो इंसानियत के लिए तब जब मिस्र में जनता के क्रांतिकारी स्वर के आगे तत्कालीन तानाशाह होस्नी मुबारक को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी थी. देश ने एक नया सूरज देखा और साथ ही महसूस की थी लोकतंत्र और गणतंत्र की एक आहट. मुबारक की विदाई के बाद वहां लोकतान्त्रिक तरीके से बनी मुहम्मद मोरसी की सरकार ने संकेत भी दिया था की वो मिस्र के लोगों के सपने और उनकी चाहत को हकीकत में बदलने में कोई गुरेज़ नहीं करेंगे. लेकिन यह बात थी कुछ दो साल पहले की और तबके और अबके हाले-ए-मिस्र में लाख गज़ का अंतर है.

एक साल पहले वर्ष २०१३ में मिस्र के लोगों को ना जाने कौन सा बदलाव रास आने लगा की उन्होंने मोरसी सरकार के विरूद्ध भी अपने आन्दोलन शुरू कर दिए. लेकिन ऐसा नहीं था की इस प्रकरण में पूरे देश में एक ही मत था. कई लोग ऐसे भी थे जो मुस्लिम ब्रदरहुड की मोरसी सरकार में विश्वास रखे हुए थे. लेकिन सेना (जो मुबारक के बाद कमज़ोर सी पड़ गयी थी) ने इस समस्या को व्यापक बता अपने आप को मज़बूत करने के लिए तख्तापलट की तैयारी कर ली. बात बड़ी अजीब है की वही मिस्र की जनता जो २०११ में मुबारक की तानाशाही के खिलाफ खड़ी होकर नारे लगा रही थी उसी जनता ने २०१३ में मोरसी की लोकतांत्रिक सरकार को गिराने में सेना को समर्थन दिया. इसे हम अतिवाद कह सकते हैं उन मिस्र वासियों का क्यूंकि आज जो कुछ भी वहां हो रहा है उसका बीज उन्होंने खुद ही बोया था.

२०१३ की तथाकथित क्रांतिकारी गतविधि जिसमे सेना प्रमुख अब्दुल फ़तेह-अल-सीसी ने मोरसी की सरकार का तख्तापलट किया आज अपने तानाशाही स्वरुप को छुपा नहीं पा रही है. मानते हैं मोरसी सरकार एक कट्टर इस्लामपंथी विचारधारा की उपज मुस्लिम ब्रदरहुड की संतान थी लेकिन एक लोकतांत्रिक सरकार के साथ इस तरह खिलवाड़ करने को हम शायद एक क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं कह सकते. सालों से परेशानियों से जून्झ रहे मिस्र को मोरसी पर भरोसा कर थोड़ा और समय देना चाहिए था. कम से कम लोकतंत्र की हार तो ना होती.

लेकिन यह सब हुआ और आज अब्दुल फ़तेह-अल-सीसी जो की कल तक मिस्र को लोकतंत्र के लिए प्रेरित करने का दावा कर रहे थे वो आज खुद गद्दी पर मुबारक का दूसरा अवतार बन कर बैठे हैं. मोरसी के बाद के मिस्र में और आज के मिस्र में कोई सकारात्मक अंतर नहीं दिख रहा है. अर्थ्व्यस्था और बेरोजगार मिस्र में इस तानाशाह क्रांतिकारियों ने कोई भी कार्य ऐसा नहीं किया जिसकी हम सराहना कर सकें. बल्कि कुछ दुखद प्रकरण ऐसे हैं जिन्होंने मिस्र को अंतर्राष्ट्रीय तख्ते पर बेईज्ज़त करने में भूमिका निभायी हैं. अभी हाल में ही मिस्र के मिन्या शहर की अदालत ने मुस्लिम ब्रदरहुड के ६८२ समर्थकों और नेताओं को फांसी की सजा सुना एक घोर फासीवादी प्रवृति को दर्शाया है. क्या कुछ इसी लोकतांत्रिक मिस्र के लिए साल भर पहले मिस्र के लोगों ने तथाकथित क्रान्ति  को अंजाम दिया था. हम उन मासूम लोगों के कत्लों को भी कैसे भूल सकते हैं जिन्हें मोरसी समर्थक कह अल-सीसी सरकार ने मौत के घाट उतार दिया.

यह विचार करने की घड़ी है मिस्रवासियों के लिए की क्या उन्हें अपनी अतिवादी प्रवृति छोड़ लोकतांत्रिक धैर्य का हाँथ पकड़ना है या फिर से मुबारक के उस तानाशाही दौर को देखना है जिससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने और उनके अपनों ने संघर्ष किया था. हालांकि अब थोड़ी देर हो गयी है. लोकतांत्रिक क्रान्ति को ख़त्म कर दिया है और  तानाशाही-अतिवादी क्रान्ति ने इसकी जगह ले ली है लेकिन क्या मिस्र एक और आन्दोलन का गवाह बन सकता है; तानाशाही के खिलाफ, अब्दुल-फ़तेह-अल-सीसी के खिलाफ? लोकतंत्र के वकीलों की मीमांसा आवश्यक है.




Vishank Singh
(Student, University Of Delhi)

Contact- 9654751123
E-mail- vishanksingh1@gmail.com
 

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