आज २६ मई २०१४ है और निसंदेह इस दिन को याद किया जाएगा
हिन्दुस्तान के आशावान कल के निर्माण के लिए. मुल्क को नरेन्द्र मोदी की शक्ल में
एक नया प्रधानमन्त्री मिल गया है जिसके साथ उमीदें जुड़ी हैं इतनी की बयां करने के
लिए उम्र थोड़ी कम है. गरीब किसान से लेकर धनवान अम्बानी तक सबके मन में उमीदों की
रौशनी है की मोदी के साथ उनके अच्छे या और भी अच्छे दिन आने वाले हैं. ये बात गौर
करने वाली है की हम सभी के दिल में एक कोना चाहे जोर से या धीरे यह कह तो रहा ही है कि “मोदी कुछ तो करेंगे ही”. इन्हीं
आशाओं ने शायद भाजपा की सरकार को एक जादुई बहुमत दे कर लोकसभा के गलियारों तक बतौर
विजेता पहुंचाया है. ये कोई आम बात नही की जब कुछ महीने पहले तक मुल्क के सारे राजनैतिक विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी
ये दावा कर रहे थे की इस आम चुनाव में शायद किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा उसी
आम चुनाव में भाजपा जैसी पार्टी ने नमो पर सवार हो इन बातों को सरे से गलत साबित
कर दिया. लेकिन इस पूरे नाटक का शीर्ष पात्र कोई और नहीं बल्कि जनता ही थी. दशकों
से कांग्रेस सरकार के ढीले ढाले रवैया से परेशान हिन्दुस्तान की कौम ने ये दिखा
दिया की वो कुछ भी कर सकती है किसी भी बुद्धिजीवी या विशेषज्ञ की सोच और विचारों
से परे. शायद इन्हीं आशाओं की मंजिलों ने मोदी को इस ज़िम्मेदारी सँभालने के मुकाम
तक पहुंचाया है. ये बात है विश्वास की और उमीदों के बीज की जिनसे मुल्क समृद्धि के
पेड़ लगते हुए देखना चाहता है.
लेकिन मेरी कलम यहीं
नहीं रुकती. मैं चंद कटुक वाक्य कहना चाहूँगा उनके लिए जो अपने आप को मोदिवाद के
कट्टर विरोधी कहते थे. मेरा पहला वार है उन कांग्रेसियों पर जिन्होंने सत्ता में
रहते हुए साल दर साल मुल्क की संप्रभुता और जनता की आकांक्षाओं को दरकिनारा किया.
आज हाल-ए-सियासतकुछ ऐसी है की यही कांग्रेस अपने आपको एक काबिल विपक्ष साबित करने
में भी नाकाम रह गयी. आखिर कहाँ गए युवराज और उनके बड़े बड़े सेनापति जो कल तक
घोटालों के रस्गुल्लें खा रहे थे. आखिर ऐसा क्यूँ हुआ की आज लोक सभा में एक मजबूत
विपक्ष देने में भी कामयाब ना हो पायी वो पार्टी जो पिछले 6 दशकों से मुल्क की
सियासत की नींव बनी हुई थी. आखिर क्यूँ टूट गयी ये नींव. विचार करने की ज़रुरत है
राहुल एंड कंपनी को मेरे इस सवाल पर. मेरे दूसरा कटाक्ष है उन नाटकीय वामपंथी
गुटों पर जिन्होंने नारेबाजी और अतिवाद को मुल्क का भविष्य मान लिया है. यह वही
मार्क्स-लेनिन के पुजारी हैं जिन्होंने मोदी के ऊपर अपनी वैचारिक टिप्पड़ियों के
बलबूतें उन्हें एक फासीवादी घोषित कर दिया था. और ये वहीँ हैं जिनकी मौजूदगी आज
लोकसभा के हॉल में मात्र नाम भर की रह गयी है. भारतीय कॉम्मुनिस्टो को अब तो इस
बात का अहसास हो ही जाना चाहिए की मुल्क केवल मार्क्स की किताबों पर विचार करने
वालों को नहीं बल्कि कौमी-एकता और कौमी-समझ की इज्ज़त करने वालों को अपनी सेवा करने
का मौका देता है. लेकिन इन दोनों ही बिरादरियों को जो सबक मिला है उसके लिए मुल्क
की जनता की सरहाना करने योग्य है.
एक बात तो है की आज
हिन्दुस्तानी सियासत की सूरत बदल गयी है. इसमें दो लोगों का बड़ा हाँथ है. नरेन्द्र
दामोदरदास मोदी और अरविन्द केजरीवाल की. हाँ ये बात अलग है की केजरीवाल ने हाल ही
में कुछ ऐसे फैसले लिए हैं जो की दुर्भाग्यपूर्ण हैं. लेकिन कांग्रेसी अत्याचार को
कब्र में दफन करने की प्रक्रिया शुरू करने में उनका बड़ा योगदान था और उम्मीद है की
आगे भी रहेगा. सियासत से हारे मुल्क के अंदर क्रोध और प्रतिशोध की भावना जगाने में
जो काम इन दोनों ने किया है वो अभूतपूर्व है. लेकिन इस पूरे प्रकरण में मोदी की
सृजनात्मक भूमिका ने हम युवा वर्ग के साथ साथ कौम के हर हिस्से को अचंभित किया है और शायद इसलिए मुल्क ने उन्हें अपना नया
वज़ीर-ए-आज़म चुना है.
समाज के हर हिस्से को
मोदी से बड़ी उमीदें हैं. सबको लगता है की वो कुछ तो ऐसा करेंगे जिससे की जनता की ज़िन्दगी
थोड़ी और आसान और खुशहाल हो जाए. कांग्रेस के राज में रुलाती हुई महंगाई और ज़हर की
तरह फैलती हुई बेरोज़गारी ने जिस तरह हिन्दुस्तान की जनता और राष्ट्र के स्वरुप के
साथ खिलवाड़ किया है उसे मोदी के हिन्दुस्तान में ना देखने की चाहत आज बच्चे बच्चे
में उफान मार रही है. घर में खाना पकाने वाली बूढ़ी माँ को भी मोदी के अंदर उसका
बेटा दिखने लगा है जो उसकी दिन रात की रोटी का ख़याल रखने के लिए तैयार है. आज गरीब
बैठा है एक आशा लिए की शायद अब वो अपनी भूखमरी के चोले को उतार सकता है. शहर में
बैठे लाखों बेरोजगारों को अब लगने लगा है की मोदी के देश में वो दिन आएगा जब वो
अपनी पहली कमाई अपनी माँ के हांथों में रख सकेंगे. नमो अब आ गयें हैं और उम्मीद है
की अब वो इन सारी उम्मीदों पर खरा उतरेंगे. हमारी तरफ से उन्हें ढेर सारी शुभकामनायें.
लेकिन दिल की सुनने पर लगता है की शायद ‘अब अच्छे दिन आने वाले हैं’
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