Tuesday, 1 July 2014

Ankit: The Author of Atrocities


पूंजीवादी पक्षाघात से पीड़ित 

                                                                                                - अंकित झा

जश्न की आपाधापी में ऐसी कुर्बानियां तो होती है रहती हैं. खेल के ऐसे महाकुम्भ में अपने तो बिछड़ते ही रहते हैं, किसका शोक मनाएं. जीत का जश्न मानते हैं, ये लेखक तो लिखता ही रहेगा.

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृतः
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुनैह.. 

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय  प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है. 
                 - श्रीमद्भग्वद गीता; [अध्याय ३, श्लोक ५]

परिवर्तन एक जूनून है तथा प्रयास एक बिमारी. परिवर्तन प्रयास से होता है अर्थात जूनून किसी बीमारी की तरह होता है. साधारण मनुष्य हो या मनुष्य द्वारा चुने गये उनके नुमाइंदे, एक बार जूनून के पक्षधर हो गये तो फिर पार पाना मुश्किल हो जाता है. लैटिन अमेरिकी देश ब्राज़ील में फुटबॉल एक जूनून है, यह एक खेल मात्र नहीं है. वहाँ के लोग इस खेल को पुजते हैं. ब्राज़ील के धडकनों में फुटबॉल ही धड़कता है, साँसों में वायु बन के, रगों में खून बनके, आँखों में चमक बन के, दिलों में हौसला बनके और जज़्बात की पराकाष्ठा पर फुटबॉल ही रहता है. फुटबॉल का अध्यात्मिक केंद्र ब्राज़ील है. मंदिर में यदि ईश्वर का विरोध होने लगे, प्रसाद की उपेक्षा होने लगे, तो कैसा लगेगा. ठीक वैसा ही हो रहा है, इस समय ब्राज़ील में. हाँ ब्राज़ील में 2014 फुटबॉल विश्वकप का विरोध हो रहा है, ये विरोध आज से नहीं, एक वर्ष से भी पहले से हो रहे हैं. 2013 कॉन्फ़ेडरेशन कप से चला आ रहा विरोध अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा है. परन्तु ना ही ये खेल अर्थात धर्म का विरोध है और न ही ईश्वर अर्थात खिलाडियों का विरोध है. विरोध की वजह है, खेल से जुड़े आडम्बर. हिंदी में एक कहावत है, तेतें पाँव पसारिये जेती लम्बी छाँव, जिसे अंग्रेजी में कहते हैं, वियर योर कोट अकोर्डिंग टू योर क्लॉथ. मतलब स्पष्ट है कि हैसियत के मुताबिक ही प्रयास करनी चाहिए, परन्तु ब्राज़ील के साकार का दुस्साहस तो देखिये, लगातार 2 वर्षों में विश्व क्व दो सबसे बड़े खेलों के आयोजन का भार उठा लिया है.

Photo Courtesy- i.Telegraph.co.uk
 2014 का फीफा विश्वकप तथा 2016 का ओलंपिक खेल. इन आयोजनों पर पैसा पानी की तरह बहा दिया जाएगा, ऐसी आशा है. जिसमें एक आशंका तो सच हो गयी तथा सवा 11 अरब डॉलर के खर्च पर फुटबॉल विश्वकप का आयोजन किया जा रहा है, कमाई हो भी जाए पर इतनी भरपाई नहीं हो पाएगी. ब्राज़ील की वामपंथी सरकार ने पूंजीवादियों के जाल में फंसकर जो जनता के हितों को टाक पर रखकर फैसला लिया, उसका विरोध होना तय था. जब ब्राज़ील को खेल के आयोजन की मेजबानी मिली उस समय बजट में खर्च 1 अरब डॉलर तय किया गया था, परन्तु फीफा के स्टैण्डर्ड की भरपाई करते करते, पैसों की फ़िज़ूलखर्ची की गयी. मन में एक ही सपना था कि चीन की तरह अपने विश्वशक्ति बनने की उद्घोषणा खेल आयोजन से करना है. एक उदहारण के परिणाम इतने भयावह होने वाला था, उन्हें पता नहीं था. समूचा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा है, जिस समय देश में पूँजी निवेश को बढ़ावा देना चाहिए उस समय ओने अर्थव्यवस्था को ऐसा अनर्थ करने के लिए प्रोत्साहित करना अवश्य अनुचित है. यदि ब्राज़ील ने चीन का उदाहरण लिया तो तीन अन्य उदाहरणों पर ध्यान क्यों नहीं दिया? जिसमें यूनान(ग्रीस),भारत तथा दक्षिण अफ्रीका का भी तो उदहारण उसके समक्ष था. 2004 के एथेंस ओलम्पिक के बाद जिस तरह ग्रीस की अर्थव्यवस्था औंधेमुंह गिरी है, कि आजतक संभल नहीं पायी है. यहाँ तक कि डिफ़ॉल्ट होने के कगार पर पहुँच गयी थी, भारत में 2010 कामनवेल्थ खेलों का आयोजन किस तरह देश की राजनीती को उथल पुथल कर गया तथा, दक्षिण अफ्रीका में हुए 2010 फीफा विश्वकप के पश्चात देश में स्टेडियम अब किसी काम नहीं आते हैं, और न ही आयोजन से उस देश में खेल की स्थिति ही सुधर पायी. ब्राज़ील ने अपने ही सामान अर्थव्यवस्थाओं से कुछ नहीं सीखा. और जो उदाहरण से नहीं सीखते वो सदा से ही इतिहास में अपने नाम को शर्मसार ही करते आये हैं. हालाँकि आयोजन के निर्माण में अब तक भारत की तरह धांधली व घोटाले सामने नहीं आये हैं, परन्तु ये समय की बात है. वर्कर्स पार्टी की सरकार जो वर्षों से जनता के समर्थन पर चलती आ रही है, किस तरह जनता के असंतोष को शांत कर पाएगी. देश में आधारभूत संरचना की स्थिति भी इतनी मजबूत नहीं है उस पर से इस तरह संसाधनों का दोहन, किस लिए सिर्फ स्टैण्डर्ड पे खरा उतरने के लिए. फीफा इस बात से आश्वश्त दिख रहा है कि आयोजन से कमाई भरपूर हो जाएगी परन्तु रोटी के लिए संघर्ष करते ब्राज़ील के लोगों पर ये आयोजन काफी भारी पड़ा है. आयोजन के लिए अलग अलग शहरों में 12 स्टेडियम बनवाए गये, उच्च तकनीक व फीफा के स्टैण्डर्ड के मुताबिक. खेती के ज़मीनों पर ये स्टेडियम तैयार किया गये, जिनका विश्वकप के बाद कोई ख़ास काम रह नहीं जाएगा. इन ज़मीनों के अधिग्रहण के बदले दिए गये हर्जाने से भी लोग खुश नहीं हैं. कोई भी हर्जाना किसान को उस ज़मीन की असली कीमत नहीं दे सकती. भव्य आयोजन, मोटी कमाई, अध्यात्मिक केंद्र, विरोध, विरोध का दमन, असंतोष तथा आने वाले तूफ़ान से निपटने की तैयारी. ब्राज़ील को पक्षाघात हो गया है, सीधे शब्दों में कहूं तो लकवा मार गया है, अंग काम नहीं करता, यहाँ पूंजीवादी पक्षाघात है, दिमाग काम नहीं कर पा रहा है. देश के गरीब के सपनों के ऊपर उन्मादी हो-हल्ला मच रहा है, अन्दर गोल दागे जा रहे हैं, सडकों पर गोली. गोल न लग पाने से दर्शकों में असंतोष है, सडकों पर विद्रोहियों में. हास हो रहा है, खेल की साख का. किसी खेल की कीमत देश की जनता से बढ़कर नहीं होती. उनके सपनों से बढ़कर नहीं होती. फिर जब एक वामपंथी सरकार ऐसा करे तो अचरज होता है. उमंग और उन्माद में अंतर नहीं पहचान पायी सरकार. खामियाजा भुगतना पड़ेगा, चुनाव भी आने ही वाले हैं. 

ऐसा सिर्फ ब्राज़ील में ही नहीं होता, हमारे देश में भी होता है. याद आता है, 2011 क्रिकेट विश्वकप का फाइनल. मुंबई, भारत शानदार तरीके से जीत गया था, वानखेड़े स्टेडियम के बाहर भीड़ उन्मादी हो गयी, जश्न का ऐसा रूप कभी देखने को नहीं मिला था, इतनी भीड़, उस पर से जश्न का उन्माद, तीन बच्चे गिर गये, कितने ही लोग उनपर चढ़ गये, वो स्टेडियम में नहीं ये थे. वो तो बीमार नानी को देखने जा रहे थे अपने पिता के साथ. 2 बड़े थे उठ गये, एक नहीं उठ पाया, जश्न के नीचे दब गया. उसके पिता ढूँढने के लिए पागलों की तरह नीचे झुकने लगा, लोग बधाई देने के लिए उसे गले लगा लेते. किस बात की बधाई, उसका छोटा बेटा यहीं कहीं दब गया है. वो बेटा फिर कभी नहीं मिला, विश्वकप का उपहार. जीत के बाद युवराज रोया था, यहाँ एक पिता के आंसू नही दिखे. जीत के बाद सचिन को कन्धों पर उठाया, कोई उसके बेटे को भी उठा लो, जीत के बाद धोनी ने बाल कटवा लिए, उस पिता ने भी कटवाए थे. धोनी को कप मिल गया, पिता को उसका बेटा नहीं मिला. जश्न की आपाधापी में ऐसी कुर्बानियां तो होती है रहती हैं. खेल के ऐसे महाकुम्भ में अपने तो बिछड़ते ही रहते हैं, किसका शोक मनाएं. जीत का जश्न मानते हैं, ये लेखक तो लिखता ही रहेगा. बेटे तो पैदा हो जाया करेंगे, कप फिर कब जीतेगा भारत, वो भी भारत में, मरीन ड्राइव के किनारे जश्न मनाने का ऐसा अवसर फिर कब मिलेगा. 

Ankit Jha
Student, University of Delhi
9716762839
ankitjha891@gmail.com

Friday, 27 June 2014

Ankit: The Author of Atrocities

व्यापमं  घोटाले पर विशेष 

क्या व्यापमं मामा की राजनीति पे भारी पड़ेगा?
                         
                                                                                                            - अंकित झा 

ये घोटाला कतई 2G व सीडब्लूजी जैसा नहीं है, इसमें करोड़ों की गड़बड़ी नहीं है परन्तु ये उन सभी से वीभत्स तथा खतरनाक है. इस गड़बड़ी में देश के भविष्य के साथ छेड़खानी की गयी, देश के प्रतिभा के साथ धोखा किया गया, बुद्धि, विवेक व शिक्षा प्रणाली के आँखों में धुल झोंका गया. 

भारतीय राजनीति की निर्लज्जता तो देखिये कि आज इज्ज़त भी बेशर्मी से बचाना पड़ रहा है, अराजकता आम सी बात लगने लगी है. कोई भी मुद्दा सामने आये, लिए दो झंडे और दो बैनर और उतर आये सड़कों पर, सारी मर्यादाओं व सत्य को लांघ कर. प्याज के नाम पर प्याज की माला पहन लेते हैं तो बिजली के नाम पर बल्ब की, पानी के नाम पर घड़े फोड़ते हैं तो महंगाई के नाम पर पुतले फूंकते हैं, उससे भी चैन नहीं मिलता है तो कार्यालय का घेराव करने निकल पड़ते हैं, ये विरोध तो नहीं. ये स्पष्ट दिखावा है, ये असहयोग तो नहीं, ये आडम्बर है. अब जब दुष्कृत्यों को घोटालों का नाम मिल गया है तथा विपक्ष होने का अर्थ विद्रोही हो गया है तब इस देश की राजनीति का हश्र क्या हो इसका निर्णय तो स्वयं विधाता के कर्तव्यसूत्रों से भी परे है. किसी भी देश की सबसे बड़ी सम्पदा है युवा वर्ग. कहते हैं, पहली बरसात में ज्यादा लोग बीमार पड़ते हैं तथा लोहे में सर्वाधिक संक्षारण भी पहले बरसात में ही होता है, अर्थात परिवर्तन की पहली दस्तक में युवा वर्ग को बचाना सबसे अधिक आवश्यक है. कहीं इसकी हवा से युवा मन में संक्षारण उत्पन्न न हो जाए. जंगक्षर होने से क्या तात्पर्य है, अर्थात समाज की लपटों में यौवन व उसकी मासूमियत न झुलसे. मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी युवा मन का भ्रष्ट हो जाना है. विद्यार्थी को एक बार वो न मिले जिस हेतु वो योग्य है तो ये उचित है परन्तु उसे वो कभी नहीं मिलना चाहिए जिस हेतु वो योग्य नहीं हो. परन्तु देखिये न, भविष्य के साथ छेड़छाड़ कर ही दी न, कर ही दिया न युवाओं को शर्मसार कुछ रुपयों की खातिर. शुरू से बताता हूँ, शुरू से. 

Picture Credit: Ankit Jha 
बीते दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का हरदा आना हुआ, स्कूल चलें हम अभियान के अनुष्ठान हेतु तथा जिले के प्रतिभाओं को सम्मानित करने हेतु. काफी मुखर हो के उन्होंने अपनी बातें रखी परन्तु एक प्रश्न पर वो ऐसे अटकें कि बस. उनकी चुप्पी ने उनके राजनीति के कान के पर्दों को क्षत-विक्षत कर के रख दिया, इतनी जोर की चीख सुनाई दी की समूचा वातावरण व्यापमंमय हो गया. शहर के पत्रकार चर्चा करने लगे कि मुख्यमंत्री के भविष्य पर चंद्रग्रहण नजदीक है, बहुत जल्द कुर्सी जाने वाली है, ये व्यापमं का भूत मुख्यमंत्री व मध्यप्रदेश में भाजपा के भविष्य को ले डूबेगा. खैर, ये तो पत्रकार हैं बातें करना इनका पेशा है और धर्म भी है. चर्चा नहीं करेंगे तो अखबार कैसे निकालेंगे तथा संस्था कैसे चलेगी. पत्रकार व सुनार में एक समानता है, दोनों कीमत परखना जानते हैं. अब वो धातु की हो या मुद्दे की क्या फर्क पड़ता है. मध्य प्रदेश में पत्रकारिता अपने बालपन से उठकर किशोरावस्था में प्रवेश कर चुका है, अब जिम्मेदार भी बन रहा है. तभी तो पीएमटी परीक्षा 2013 के तीन दिन पूर्व ही होने वाली एक बड़ी धांधली का पर्दाफाश किया परन्तु किसी ने उसपर गौर नहीं किया. परन्तु संघर्ष जारी रहा तथा मध्यप्रदेश में अब तक की सबसे बड़ी गड़बड़ी का पर्दाफाश हुआ. ये गड़बड़ी ना सिर्फ एक परीक्षा की थी वरन ये देश के भविष्य के साथ किये गये सबसे बड़े धोखे के रूप में सामने आया, इसे ही किसी ने पीएमटी घोटाला कहा तो राष्ट्रिय मीडिया इसे व्यापमं घोटाला कहकर संबोधित कर रहा है. वर्ष 2008-09 से लेकर वो सभी परीक्षाएं जिन्हें मध्य प्रदेश व्यवसायिक परीक्षा मंडल द्वारा नियोजित किया गया, सभी एक सिरे से शक के घेरे में आ गये हैं. मामला ये है कि मध्य प्रदेश सरकार की मध्य प्रदेश व्यवसायिक परीक्षा मंडल द्वारा आयोजित सरकारी शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश परीक्षाओं एवं विभिन्न सरकारी पदों पर भर्ती हेतु लिए गये परीक्षाओं में धांधली की गयी थी. इस धांधली को सेटिंग कहना उचित होगा, कुछ पैसों के नाम पर, परीक्षा के रोल नंबर, सीट, परीक्षार्थी तथा देश का भविष्य सब कुछ बेचा गया. यूँ तो व्यापमं द्वारा करवाए जा रहे परीक्षाओं में गड़बड़ी की शिकायतें 2009 से ही की जा रही थीं, परन्तु 2013 के परीक्षा के बाद जब गड़बड़ी खुल कर सामने आई तो इस मुद्दे ने तूल पकड़ा. वर्ष 2013 में पीएमटी की प्रवेश परीक्षा में प्रदेश में कुल 42000 छात्र परीक्षा में अवतरित हुए थे परन्तु 1120 छात्रों के फॉर्म गायब हो गये तथा 345 परीक्षार्थी फर्जी पाए गये. ये सब व्यापमं के अधिकारीयों के द्वारा किये गये गड़बड़ियों के कारण हुआ. इस गड़बड़ी के कई दोषी हैं, व्यापमं अधिकारीयों से लेकर बहार से आने वाले परीक्षार्थी तथा मध्यस्थता करने वाले दलाल तक. इस गड़बड़ी के खुलने तक कतई भी ये इतना बड़ा घोटाला प्रतीत नहीं हो रहा था पर जैसे जैसे परतें खुलती गयीं, सत्य सामने आता गया, गड़बड़ी की विशालता भी सामने आती गयी. मुद्दा सामने आने के पश्चात् तथा विपक्ष के दवाब में सूबे की सरकार ने एक एसटीएफ बनाई, व जांच का जिम्मा उन्हें सौंपा. जिस तरह एसटीएफ की जांच आगे बढती गयी, परत दर परत खुलती गयी, इस घोटाले की विकरालता सिद्ध होती गयी. आरोपी कौन है ये नहीं बल्कि प्रश्न ये होने लगा की आरोपी कितने? इतना बड़ा षड्यंत्र रचा कैसे गया, इस व्यूह की रचना किस तरह से होती चली गयी, क्या प्रदेश सरकार इस सभी गड़बड़ी से अनभिज्ञ रही, या अनभिज्ञ होने का अभिनय करती रही. मध्य परदेश व्यापमं पीएमटी 2013 घोटाले में एसटीएफ ने 28 आरोपियों के सहित 3292 केस के चालान तथा लगभग 90 हज़ार दस्तावेज प्रस्तुत किये हैं जिससे यह पता चलता है कि ये गड़बड़ी कितनी बड़ी रही है. सोंचने की बात ये है कि किस प्रकार व्यापमं के अधिकारीयों तथा दलालों ने मिल के इस घोटाले को मूर्त रूप प्रदान किया. व्यापमं अधिकारी नितिन महिंद्रा, सी के मिश्रा, अजय सेन आदि मुख्य आरोपी बताएं जा रहे हैं. सी के मिश्रा ने उच्च न्यायालय में ये कबूल किया कि वो भी इस गड़बड़ी में 2009 से संलग्न थें. 2009 में एक एजेंट डॉ सागर ने एक सीट आगे पीछे करने हेतु 50000 रु की कीमत चुकाई थी व लगभग 20 रोल नंबर को आगे पीछे सेट किया गया था. इसी तरह अगले 3-4 वर्षों में सागर ने करीब 100 परिक्षार्थियों के रोल के सीट में तब्दीलियाँ की थीं, जिस दौरान उन्होंने 50 लाख से भी अधिक वसूलें. वहीँ व्यापमं के क्लर्क व प्रोग्रामर के बयान के मुताबिक नितिन महिंद्रा व अजय सेन के कंप्यूटर व्यापमं के सर्वर से जुड़े हुए नहीं थे, इसी का फायदा उठाकर डाटा के साथ बार बार छेड़खानी की गयी, नतीजतन इतनी बड़ी गड़बड़ी ने जन्म लिया. वर्ष 2013 में डॉ सागर, संजय गुप्ता के साथ मिलकर महिंद्रा, सेन व मिश्रा ने करीब 450 छात्रों के रोल नंबर में हेर फेर किया, और इन अनुक्रमांकों के आगे-पीछे के स्थान खाली छोड़ दिए, ये सारा हेर फेर महिंद्रा के घर के कंप्यूटर पर किया गया. रोल नंबर को मनमाने तरीके से आवंटित किया गया जो इस धांधली का मुख्य आधार बना. पीएमटी फर्जीवाड़े के साथ ही साथ पुलिस भर्ती परीक्षा, पटवारी चयन परीक्षा, संविदा शिक्षक परीक्षा आदि में भी घोटाले की बात सामने आई है, तथा बात यह तक बढ़ी कि पीएमटी परीक्षा के प्रश्नपत्र भी लीक कर दिए गये थे. इन सभी परीक्षाओं में अनियमितताएं, राशि के लेन-देन जैसे मामले हैं. प्रशासन की इसमें क्या ज़िम्मेदारी थी, ये कि निष्पक्ष जांच करवाए, जो होता दिख रहा है, अन्य परीक्षाओं में हो रहे धांधली को रोका जाए, जो नहीं हो रहा है. व्यापमं घोटाले के सामने आने के बाद भी 64 विभागीय परीक्षाओं की जिम्मेदारी भी व्यापमं को ही सौंप दी गयी, तथा परिवहन आरक्षक पद के भर्ती में शारीरिक परीक्षा की अनिवार्यता समाप्त कर दी गयी. यह निर्णय आश्चर्य से कम नहीं क्योंकि किसी भी आरक्षक पद हेतु शारीरिक परीक्षा अनिवार्य होता है. इसमें कतई दो राय नहीं कि ये सारी गड़बड़ी प्रशासन के संज्ञान में हुई तथा इसमें कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की गयी. जबकि अपराधियों को शह जरुर प्राप्त हुआ, जसके बूते उन्होंने इतने बड़े घोटाले को अंजाम दिया. 

Picture Credit: Ankit Jha
2008-09 के बाद से अब तक ऐसे फर्जी तरीकों से गये विभिन्न विद्यार्थी अब चिकित्सक बन गये हैं, तथा वे अभ्यर्थ हैं किसी न किसी अस्पताल या क्लिनिक में. ये घोटाला कतई 2G व सीडब्लूजी जैसा नहीं है, इसमें करोड़ों की गड़बड़ी नहीं है परन्तु ये उन सभी से वीभत्स तथा खतरनाक है. इस गड़बड़ी में देश के भविष्य के साथ छेड़खानी की गयी, देश के प्रतिभा के साथ धोखा किया गया, बुद्धि, विवेक व शिक्षा प्रणाली के आँखों में धुल झोंका गया. पैसों का घोटाला तो देश भूल जाएगा परन्तु जो मानवीय मूल्यों का क्षरण कर, देश की शिक्षा के साथ गड़बड़ी की गयी, उसे कौन भूल पायेगा. पूरे देश में मध्य प्रदेश के शासन की किरकिरी हो रही है. ये घोटाला मामा के भांजे भांजियों के साथ धोखा था, उनके साथ किया गया सबसे बड़ा छल. मामा शांत रहें, आज भी है, पता नहीं क्यों? उनके मंत्री गिरफ्तार हुए, वो चुप रहें, उनके अधिकारीयों के पोल खुलते रहे, वो चुप रहे, उनके करीबियों से पूछताछ होती रही, वे चुप रहे, उनके प्रदेश में हंगामे हो रहे हैं, वे चुप हैं, विपक्ष प्रदर्शन कर रहा है, वे चुप हैं. कितनी चुप्पी, कितना मौन? किसको बचाने के लिए है ये चुप्पी, या लज्जा ने मुंह बंद कर रखा है. कुछ बोलने की हिम्मत क्यों नहीं हो पा रही है, या ऐसा कोई रहस्य है, जो बंद मुंह के अन्दर छिपा है, जैसे ही कुछ कहने की कोशिश की, भेद खुल जायेगा. खुलने दीजिये मामाजी इस भेद को, चुप मत रहिये, हम जानते हैं, आप दोषी नहीं है. फिर तत्परता दिखाइए, जो प्यार आपको प्रदेश देता है, उसके प्रति अपनी कृतज्ञता दिखाइए, कुछ तो बोलिए. आपकी ये चुप्पी देश के उन प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के लिए कहीं महंगी न पड़ जाए, जो उम्मीद के साथ प्रदेश में अपने अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं. युवाओं के साथ किये गये इस अन्याय के विरुद्ध कहना अनिवार्य हो गया है, इसका प्रतिकार अब आवश्यक है, यदि भविष्य को अपना चेहरा दिखाना है तो सच से पर्दा हटाना आवश्यक है.   

Ankit Jha
Student, University of Delhi
9716762839
ankitjha891@gmail.com

क्या है मीमांसा ?




कई दिनों से यह लिखने की तमन्ना थी लेकिन ना वक़्त मिला ना मौका. लेकिन हालाथ ऐसे हो चुके हैं कि आज यह बयां करना ज़रूरी है की ऐसा कौन सा सपना है जो पल रहा है मेरे और मेरे साथियों की आँखों में. आखिर वो कैसे विचार हैं जिन्होंने रात और दिन दोनों को ही  संघर्ष करना सिखा दिया है? उस विचारों के प्रवाह का नाम है मीमांसा!


मीमांसा. एक आवाज़ है उस आज़ाद छात्र की जो अपने विचारों की आग से समाज को रौशन करने में  यकीन रखता है. यह एक प्रयास है अपनी सोच को खुला आसमान देने की. मीमांसा एक उद्घोष है कि अब हम लिखेंगे, कि अब हम बोलेंगे हर उन मुद्दों पर जिनको हमसे छुपाया जा रहा है. यूँ तो आप इसे कागज़ का एक टुकड़ा कह सकते हैं लेकिन इसमें बसने वाले प्रचंड विचार समाज की प्रतिवादी सोच के टुकड़े करने में सक्षम हैं.  


वो दिन था सोलह दिसंबर 2013 का जब निर्भया की निर्भीक कोंख से जन्म हुआ था मीमांसा का. हम कभी दो थे, कल चार हुए और आज कई हैं. आने वाले कल में और भी होंगे. लड़ाई लड़ी जायेगी हर मोर्चे पर अपने गूंगेपन और अपने बहरेपन से. मुक्त करा जाएगा अपने आप को इस कुविचार से कि “हम लिख नहीं सकते, हम बोल नहीं सकते”. विचारों की लड़ाई के दौरान कई लोग मीमांसा से जुड़ेंगे और कई उसे छोड़ भी देंगे. लेकिन साथियों के आने में ना तो मीमांसा की जीत होगी और ना ही उनके चले जाने में हार! मीमांसा की जीत तो आगे बढ़ते रहने में है और हार घुटने टेक के रुक जाने में. मीमांसा जीता रहेगा और जीतता रहेगा तब तक जब तक आखिरी साथी अपनी आखरी कलम की आखिरी बूँद तक लिखेगा और अपने विचारों के प्रवाह को जारी रखेगा. और चूँकि विचार कभी नहीं मरते, मीमांसा को खत्म करना मुमकिन नहीं होगा. 


तो अब विचारों की इस लड़ाई में शामिल हो जाओ की वक़्त बुला रहा है. तुम चाहे कोई भी हो तुम्हारे कुछ विचार तो होंगे ? तुम अगर जिंदा हो तो लिखो अपनीं ज़िन्दगी को. बस इतना ही कहूँगा की मीमांसा को बस एक न्यूज़लेटर, ब्लॉग या फेसबुक का पेज मत समझना, यह एक आन्दोलन है अपनी खुद की चुप्पी के खिलाफ!



चाहे दिन का उजाला हो ना हो,
और हो ना हो सूरज की प्रचंड लालिमा!
रात के आसमान से छीन लेंगे दो टुकड़े कालिख के
और लिख देंगे बंजर ज़मीन पर कि ‘हम लिखेंगे’ !



विचारों का प्रवाह अमर रहे !
छात्र की मीमांसा अमर रहे  !

 




“हम लिखेंगे !”
"We Will Write!"



 

विशांक सिंह ‘एल गाज़ी’
सदस्य,
टीम मीमांसा


Contact- 09654751123
E-mail- vishanksingh1@gmail.com