Friday, 14 November 2014

मनीष:मन के मत पर


संस्कृति है, यह ज़हर तो नहीं.
                                         
                                                        -   मनीष पण्डित

अक्सर यह प्रलाप मचाया जाता है कि पाश्चात्य संस्कृति हमारे देश की संस्कृति को भ्रष्ट कर रही है. पाश्चात्य संस्कृति विष के समान घातक है. इसमें पारिवारिक और नैतिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है. पाश्चात्य संस्कृति भोवादी तथा भौतिकवादी है इत्यादि. क्या किन्ही भी दो संस्कृतियों की इस तरह एकपक्षीय और द्वेषपूर्ण तुलना करने से पहले हमें इन दो प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि स्वयं संस्कृति क्या होती है और वे क्या तत्व हैं जो किसी संस्कृति को भोगवादी अथवा त्यागवादी बनाती है. यदि हम इन दोनों ही प्रश्नों के उत्तर खोजे बिना ही किसी भी संस्कृति के पक्ष या प्रतिपक्ष में लामबंद होकर मोर्चा निकालने का निर्णय ले बैठते हैं तो यकीन मानिए कि उस निर्णय से किसी भी संस्कृति का चरित्र चाहे निर्धारित हो या न हो परन्तु हमारी मूढ़ता, अतार्किकता, और अंध-विश्वास अवश्य सिद्ध हो जाएगी. हमारा मूढ़, अतार्किक और अंध-विश्वासी होना हमारी अपनी ही संस्कृति के लिए उतना ही घातक है जितना कि किसी परधर्मी और धर्मांध हमलावर द्वारा हमारी संस्कृति को नष्ट करने के लिए उस पर किये गये आक्रमण.
संस्कृति मनुष्यों के विचार और कर्मों की रूपरेखा तैयार नहीं करती. मनुष्यों के कर्म, स्वभाव, गुण-दोष और आदतें ही किसी परिवार, समाज और राष्ट्र की संस्कृति को जन्म देती है. बहुसंख्यक मनुष्य जिस कर्म, स्वभाव और प्रवृत्तियों का पोषण करते हैं और उन्हें आगामी पीढ़ियों को विरासत के रूप में सौंपते हैं, वे ही कर्म, स्वभाव और प्रवृत्तियों उस मनुष्य समुदाय की संस्कृति कहलाती है. फिर, यदि कोई संस्कृति स्वयम्भू तौर पर भोगवादी है ही तो फिर उस संस्कृति में विश्व जन-मानस को आंदोलित करके रख देने वाले चिन्तक भला क्यों पैदा हो गये? यदि कोई संस्कृति स्वभाव से ही नैतिकताविहीन है तो भला उस संस्कृति के इतिहास में समाज और राष्ट्र के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले मनुष्यों की गाथाएं क्या कर रही हैं?
यदि कोई संस्कृति निकृष्ट ही है तो भला उस संस्कृति के अनुयाइयों के द्वारा ज्ञान-विज्ञान , कला, राजनीति और दर्शन के क्षेत्र में अद्भुत योगदान किस प्रकार संभव हो पाया? सुकरात, अरस्तु, प्लेटो, आर्कमिडीज, न्यूटन, थोमस जैफेरसन, अब्राहम लिंकन, एडिसन, हेनरी फोर्ड, कार्ल मार्क्स, शेक्सपियर और ना जाने कितने ही अनगिनत व्यक्तित्व! क्या वे भोगवादी और नैतिकताविहीन थे? कई मूर्ख ऐसे भी हैं जो परिधानों और आधुनिक जीवनशैली को लक्ष्य कर पाश्चात्य संस्कृति के मुंह पर कालिख पोतने का प्रयास करते हैं. परन्तु वे स्वयं अपनी ही कूपमंडूकता सिद्ध कर देते हैं. किसी भी संस्कृति का सही परिचय परिधान विशेष अथवा उसमें व्याप्त कुछ बुराइयों के आधार पर नहीं मिलता. क्या देव-संस्कृति कहलानी वाली संस्कृतियों में भी राक्षस, पापी तथा बलात्कारी नहीं हुए? क्या सर्वश्रेष्ठता का दावा ठोकने वाली विश्व की महानतम संस्कृतियों में भी जगत को लज्जित कर देने वाले कुकर्मों का कोई प्रमाण नहीं?
यहाँ किसी एक संस्कृति के विरोध में हमारी दूसरी संस्कृति का समर्थन या विरोध नहीं किया जा रहा बल्कि यह आग्रह किया जा रहा है कि हम संस्कृतियों और मनुष्यों के अध्ययन की क्षमता का विकास करें न कि जज बनकर उन पर कोई फैसला सुनाएं. हम ‘ओपिनियेटेड’ होकर तो सड़क पर पड़ी धूल का विश्लेषण भी नहीं कर सकते तो किसी संस्कृति की समीक्षा क्या ख़ाक करेंगे? प्रत्येक संस्कृति, प्रत्येक सभ्यता(यदि उसके जनक ईश्वर हैं जो कि हैं ही) अपने आप में कुछ अनुपम और अद्वितीय है. उसका इस पृथ्वी पर जीवित होना ही इस बात का प्रमाण है कि मनुष्यता के विकास में उसकी कोई भूमिका तय है. और जब मल-मूत्र से भरा मनुष्य भी अपनी सद्गुणों के कारन पूजा जा सकता है तो भला कोई संस्कृति विशेष ही शाप क्यों भोगे? यह सोंचना भी हास्यास्पद है कि कोई संस्कृति जिसकी छत्र-छाया में एक पूरी सभ्यता सांस ले रही है. वह संस्कृति सिरे से ही निकृष्ट है. फिर तो वह पूरी मानवीय सभ्यता और विश्व के विकास में उस सभ्यता का योगदान निरर्थक ही सिद्ध हुआ.
आज वो समय है जब राजनैतिक, धार्मिक तथा आर्थिक मोर्चों पर लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं. ऐसे समय में यदि हम अपराधों और मानवीय पतन को संस्कृति और धर्म के चश्में से देखते हैं तो हम इतिहास के गुनाहगार सिद्ध होंगे. इतिहास हम पर थूकेगा. विश्व की सभी संस्कृतियाँ उतनी ही पवित्र हैं जितनी कि गंगा. गंगा मैली होकर भी माँ है और यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए. मीमांसा अवश्य कीजियेगा. 
Manish Pandit
Poet, Writer & Teacher
9993173208
shourya.man.mp@gmail.com

Saturday, 16 August 2014

Ankit: The Author of Atrocities



सिविल परीक्षाओं में भाषा का महत्त्व

                       -    अंकित झा 

   बात भाषा को उसके अधिकार मिलने का नहीं है वरन बात उस ऐतिहासिक दुष्कृत्य का है जो कभी किया गया था. ये वो दुष्कृत्य था जिसका दंड कई पीढ़ियों ने भुगता अब समूची व्यवस्था भुगत रही है. प्रश्न अंग्रेजी के प्रभुत्व का तो है ही नहीं, और न कभी था. प्रश्न है, अपने देश की गरिमा का. जिसे पीछे छोड़ने का दुस्साहस किया गया है, आज से नहीं सदियों से. अपने गौरव को माटी के भाव तौलने के दोषी कौन? हम. अतः अंग्रेजी हम पर हावी नहीं हुआ, वरन हमने उसे गले लगाया.
 
आदर्श के अंत से विनाश का प्रारम्भ होता है. फिर वो कोई सा भी आश्रम हो, समाज में एक सत्य निहित है कि अपने कर्म पर किसी की तानाशाही नहीं सहनी चाहिए. भारतीय समाज के प्रारम्भ से ही जीवन में आश्रम के महत्त्व को समझाने व मनुष्य के समाज से सम्बन्ध स्थापित करने में इसकी महत्ता को बरकरार रखने का प्रयास किया है. रामायण को ही ले, गुरु वशिष्ठ के वचन सुन राम के अन्दर समाज का मोह समाप्त हो गया, सभी लालसाएं मिट गयी, ना राज करने की इच्छा और ना ही राजमहल में निवास करने की. युवा राम के वैभव के प्रति इस उपेक्षा से दशरथ भयभीत रहा करते. दोष किसका था? अवश्य ही गुरु वशिष्ठ का. शिक्षा देने में इतना अनुभव होने के बावजूद भी, राम को जीवन दर्शन में कर्म के प्रभाव को समझाने में विफल रहे थे, सिर्फ धर्म तथा कामनाओं से मुक्ति की ही शिक्षा दे पाएं. राम से समाज को काफी आशाएं थी, शिक्षा की अपूर्णता आशाओं के वध की ओर बढती दिखी. गुरु विश्वामित्र आयें,राम को जीवन दर्शन भी बताया, कर्म की सिद्धि को भी बताया, अस्त्र ज्ञान भी दिया, निपुण भी किया, तथा अभ्यास हेतु अपने साथ वन भी ले गये जहां राक्षस उनके यज्ञ में बाधा डाला करते थे, वहाँ पर उन्होंने राक्षसी ताड़का का वध भी किया. चूँकि धर्म के अनुसार स्त्री का वध एक अपराध है परन्तु गुरु विश्वामित्र के समझाने के पश्चात् वो इस बात को तैयार हुए की समाज हित में किया गया कर्म कभी अधर्म नहीं हो सकता. अतः शिक्षा के सभी पहलुओं से उन्होंने अपनी राह सुनिश्चित की. अब उनके अन्दर जीवन के प्रति प्रेम भी था, विलासिता के प्रति उपेक्षा भी, कर्म की समझ तथा धर्म का ज्ञान. और किसी विद्यार्थी को क्या चाहिए? 

आज की शिक्षा व्यवस्था से तनिक तुलना कीजिये, क्या यहाँ कर्म की समझ देने का प्रयास होता है, या धर्म का ज्ञान दिया जाता है, विलासिता की उपेक्षा तो दूर की बात, सांसारिक पण्यों में इस तरह विद्यार्थी को लिप्त कर दिया गया है कि अब यदि इस गड्ढ़ से निकले तो सामने महागड्ढ़ फैला है. महागड्ढ़ का अर्थ होता है, सरिता के सफ़र का वह समय जब एक ऊंचाई से निरंतर गिरने के पश्चात् उस जगह पर एक बहुत बड़ी खड्ड बन जाती है, विद्यार्थी जीवन भी यही है, एक ही तरह की शिक्षा प्राप्त करते करते 16 वर्ष के अपने किशोर आश्रम में अपने मन में एक अजीब सी महागड्ढ़ निर्मित कर लेता है. ये खड्ड विलासिता तथा सांसारिक उपेक्षाओं के किले पर निर्मित होता है. भारत को एक परिवर्तन चाहिए, शिक्षा के क्षेत्र में, शिक्षण के क्षेत्र में, शैक्षणिक गुणवत्ता के क्षेत्र में. कर्म व धर्म के मध्य झूलती शिक्षा व्यवस्था किसी टूटी हुई डोर के आखिरी सिरे को पकड़े लटकता सा प्रतीत होता है. विद्यार्थी होनहार है, परन्तु लाचार है, एक नई पीढ़ी का ऐसा अनावरण!! हे शिव! गाय के निबंध से जीवन शुरू करने वाला विद्यार्थी आज कंप्यूटर में निपुणता ले लेता है परन्तु शिक्षा के तीन प्रमुख उद्देश्य लेखन, वाचन तथा स्मरण को समझने में नाकाम रहता है. किसी समाज को और क्या चाहिए? एक ऐसा भविष्य जो समस्याओं से पूर्व उसका समाधान जानता हो, परन्तु नई पीढ़ी तो समस्याओं से भी अनभिज्ञ है तथा समाधान से भी. अंतर्मन तो दूर ह्रदय में झाँकने को कोई तैयार नही, कैसे चेतना का विकास किया जाए, कैसे संसार को हम उदाहरण दे सकेंगे, कि क्या पीढ़ी रची है हमने

पीढ़ी रचने में कहीं चूक तो नहीं हो रही है हमसे? कभी कभी सोंच के रूह काँप उठता है कि इस देश के भविष्य का क्या होगा यदि यही हालात रहे तो. ऐसी पीढ़ी जो हालात को बदलने पर नहीं वरन अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करती है. अनुकूलता कतई बुरी बात नहीं है, परन्तु ऐसे समय में जब दौर प्रतिस्पर्धा से कई कोस आगे निकल चूका है उस समय ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करना लज्जित करती है. बात भाषा को उसके अधिकार मिलने का नहीं है वरन बात उस ऐतिहासिक दुष्कृत्य का है जो कभी किया गया था. ये वो दुष्कृत्य था जिसका दंड कई पीढ़ियों ने भुगता अब समूची व्यवस्था भुगत रही है. प्रश्न अंग्रेजी के प्रभुत्व का तो है ही नहीं, और न कभी था. प्रश्न है, अपने देश की गरिमा का. जिसे पीछे छोड़ने का दुस्साहस किया गया है, आज से नहीं सदियों से. अपने गौरव को माटी के भाव तौलने के दोषी कौन? हम. अतः अंग्रेजी हम पर हावी नहीं हुआ, वरन हमने उसे गले लगाया. और आज भी उसके तलवे चाट रहे हैं, यह रिश्ता ग़ुलामी कब बन गया, किसी को ज्ञात नहीं. परन्तु सत्य तो यही है. हमारी भाषा अंग्रेजी हो, कोई दुःख नहीं परन्तु हमारी सोंच अंग्रेजी नहीं होनी चाहिए. परन्तु मनुष्य तो मनुष्य ठहरा, जिस भाषा में बोलता है उसी में सोंचने भी लगता है. हमारी सोंचने की भाषा भी अंग्रेजी हो गयी, फिर यह तो घुलामी ही हुई न? 

हालिया उदाहरण ले, यूपीएससी के परीक्षा में भाषा तथा सीसैट को लेकर हुए विवाद में मसला जो सामने आया हो परन्तु, बात इतनी खटक गयी कि अनिवार्यता के नाम पर अंग्रेजी को बढ़ावा दिया जाने लगा. सीबीएससी के दसवी के बाद के प्रकरण को कौन नहीं जानता, या फिर कहें कि आठवीं के बाद के प्रकरण को. अंग्रेजी अनिवार्य परन्तु हिंदी नहीं. कोई बात नहीं. उतना उचित था परन्तु, यह दौर किसी भाषा को बढ़ावा देने का नहीं बल्कि अपनी भाषा के संरक्षण का है. अंग्रेजी विदेशी नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय भाषा है. अंग्रेजी सीखना अंतर्राष्ट्रीय बनना है. अंग्रेजी को बढ़ावा देकर हम अवश्य ही अपने विदेशी रिश्तों को संवार सकते हैं. मैथिली में एक कहावत है, “पेट में खर नइ, सिंग में तेल” जिसका अर्थ ये हुआ कि अपने मवेशी को खाना भले ही न दे परन्तु उसके सिंग में जरुर तेल लगाते रहा जाए. खाने को भोजन हो न हो परन्तु ठाठ बाठ में कमी नहीं आनी चाहिए. अजीब बात है न, गुर्दे खराब परन्तु मूंछों के ताव में कोई कमी नहीं. अंग्रेजी सीखना अच्छी बात है, अंग्रेजी को अपनाना और भी अच्छी बात है परन्तु यदि उसकी कीमत हिंदी का वध है तो कतई नहीं. हमारे देश में 80 के दशक तक हिंदी में पीएचडी  शोध कार्य देने की अनुमति नहीं थी, अफ़सोस. फिर अनुमति प्राप्त हुई, परन्तु यह अनुमति नाकाफ़ी रही. यह कोई मुहीम नहीं है, हिंदी को बचाने हेतु, बल्कि एक प्रयास है, भाषा की सार्थकता को कायम रखने हेतु. ये आन्दोलन मात्र दिल्ली में ही हिन् हो रहे हैं वरन इलाहाबाद, बेंगलुरु, हैदराबाद आदि शहरों में भी आन्दोलन की सुगबुगाहट है.  

अब प्रश्न कि सिविल परीक्षाओं में भाषा का क्या महत्त्व? महत्त्व है, जिस समाज से हम आते हैं, जहां पर प्रधान सेवक सेवा के लिए जाते हैं, उसे समाज की आत्मा कहते हैं, अंग्रेजी उस अपनेपन को समझा नहीं आती है. ऐसे आन्दोलन से भाषा को उसका अधिकार मिलने से रहा. पिछले वर्ष के नतीजे देखे जाए, 1122 चुने हुए परीक्षार्थियों में हिंदी पृष्ठभूमि वाले नाममात्र के बचे हैं, वही अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ से चयनित विद्यार्थियों की संख्या 30 से भी कम रही जिसका सीधा अर्थ ये है कि कहीं न कहीं तो कमी है. ये कमी कहाँ है इसका पता लगाना होगा. ये कमी 2011 के बाद ही क्यों उत्पन्न हुआ है?  2011 में नयी व्यवस्था के आने के बाद से ही विद्यार्थियों में असंतोष बढ़ने लगा था, कारण स्पष्ट है कि विद्यार्थियों अनुभूति के साथ मज़ाक किया गया. सीसैट का अर्थ ‘सिविल सर्विसेज एप्टीटूड टेस्ट’ है, छात्रों का लक्ष्य है इस टेस्ट को हटाने की. यह टेस्ट मानसिक कुशलता, बौद्धिक रुझान तथा सामान्य ज्ञान के परीक्षा. परन्तु मूलतः अंग्रेजी में तैयार हुए इस प्रश्नों का अनुवाद इतना खराब होता है कि छात्र उसे समझ ही नहीं पाते हैं. तथा 200 अंकों के प्रश्न पात्र में लगभग 30 अनिवार्य अंक अंग्रेजी के होते हैं, जिसपर की छात्रों को ऐतराज़ है. क्या युएनओ से आई किसी चिट्ठी का महत्त्व देश के भूखे किसान के गुहार से अधिक महत्वपूर्ण है? यूँ तो सरकारी सेवकों को टाइपिंग का भी काम पड़ता है, तो क्या टाइपिंग का भी टेस्ट लिया जाए, क्या उन्हें ड्राइविंग आना भी अनिवार्य होना चाहिए. यह सब एक भौकाल है, जिसे भ्रामकता की तरह फैलाया जा रहा है. इन कामों के लिए अब तक कुछ अन्य लोग रोज़गार में लगाया जाता रहा है, एक और काम के लिए बढ़ जाएगा. अंग्रेजी का अनुवादक रख दिया जाएगा उस एक चिट्ठी के लिए, एक चिट्ठी के लिए क्या छात्रों के भविष्य से खेलना उचित होगा? अब समय है कि इस तरह के अनियमितताओं को दूर कर भाषा के सही स्वरुप को दर्शन देने हेतु बाध्य किया जाए. हमें आवश्यकता है, गुरु विश्वामित्र की, जो देश में राम जैसे शिष्य पुनः ला सके जो सेवा के नए आयाम गढ़ सके. 

Ankit Jha
Writer,
Student, University of Delhi
9716762839
ankitjha891@gmail.com


Monday, 4 August 2014

मनीष: मन के मत पर


डोर
                                                           - मनीष पंडित

पिताजी के चश्मे
पर चढ़ी हैं परतें
वर्षों के अनुभव की
सघन इतनी हैं कि
देख नहीं पाती हैं
उदय नवयुग के सूरज का
पीढ़ियों के अंतर
इक छोर पर पिता
दूसरे पर संतान
मिल ही नहीं पाती
दो धाराएं एक ही
जीवन सरिता की
दो सभ्यताएं
दो संस्कृतियां
साँस लेती हैं
एक ही छत के नीचे
टकराती हैं, झगड़ती हैं
फिर भी अलग नहीं होती
छोर अलग होने से
डोर खंडित नहीं होती ।

Manish Pandit
Poet, Writer & Teacher
9993173208
shourya.man.mp@gmail.com