Friday 14 November 2014

मनीष:मन के मत पर


संस्कृति है, यह ज़हर तो नहीं.
                                         
                                                        -   मनीष पण्डित

अक्सर यह प्रलाप मचाया जाता है कि पाश्चात्य संस्कृति हमारे देश की संस्कृति को भ्रष्ट कर रही है. पाश्चात्य संस्कृति विष के समान घातक है. इसमें पारिवारिक और नैतिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है. पाश्चात्य संस्कृति भोवादी तथा भौतिकवादी है इत्यादि. क्या किन्ही भी दो संस्कृतियों की इस तरह एकपक्षीय और द्वेषपूर्ण तुलना करने से पहले हमें इन दो प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि स्वयं संस्कृति क्या होती है और वे क्या तत्व हैं जो किसी संस्कृति को भोगवादी अथवा त्यागवादी बनाती है. यदि हम इन दोनों ही प्रश्नों के उत्तर खोजे बिना ही किसी भी संस्कृति के पक्ष या प्रतिपक्ष में लामबंद होकर मोर्चा निकालने का निर्णय ले बैठते हैं तो यकीन मानिए कि उस निर्णय से किसी भी संस्कृति का चरित्र चाहे निर्धारित हो या न हो परन्तु हमारी मूढ़ता, अतार्किकता, और अंध-विश्वास अवश्य सिद्ध हो जाएगी. हमारा मूढ़, अतार्किक और अंध-विश्वासी होना हमारी अपनी ही संस्कृति के लिए उतना ही घातक है जितना कि किसी परधर्मी और धर्मांध हमलावर द्वारा हमारी संस्कृति को नष्ट करने के लिए उस पर किये गये आक्रमण.
संस्कृति मनुष्यों के विचार और कर्मों की रूपरेखा तैयार नहीं करती. मनुष्यों के कर्म, स्वभाव, गुण-दोष और आदतें ही किसी परिवार, समाज और राष्ट्र की संस्कृति को जन्म देती है. बहुसंख्यक मनुष्य जिस कर्म, स्वभाव और प्रवृत्तियों का पोषण करते हैं और उन्हें आगामी पीढ़ियों को विरासत के रूप में सौंपते हैं, वे ही कर्म, स्वभाव और प्रवृत्तियों उस मनुष्य समुदाय की संस्कृति कहलाती है. फिर, यदि कोई संस्कृति स्वयम्भू तौर पर भोगवादी है ही तो फिर उस संस्कृति में विश्व जन-मानस को आंदोलित करके रख देने वाले चिन्तक भला क्यों पैदा हो गये? यदि कोई संस्कृति स्वभाव से ही नैतिकताविहीन है तो भला उस संस्कृति के इतिहास में समाज और राष्ट्र के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले मनुष्यों की गाथाएं क्या कर रही हैं?
यदि कोई संस्कृति निकृष्ट ही है तो भला उस संस्कृति के अनुयाइयों के द्वारा ज्ञान-विज्ञान , कला, राजनीति और दर्शन के क्षेत्र में अद्भुत योगदान किस प्रकार संभव हो पाया? सुकरात, अरस्तु, प्लेटो, आर्कमिडीज, न्यूटन, थोमस जैफेरसन, अब्राहम लिंकन, एडिसन, हेनरी फोर्ड, कार्ल मार्क्स, शेक्सपियर और ना जाने कितने ही अनगिनत व्यक्तित्व! क्या वे भोगवादी और नैतिकताविहीन थे? कई मूर्ख ऐसे भी हैं जो परिधानों और आधुनिक जीवनशैली को लक्ष्य कर पाश्चात्य संस्कृति के मुंह पर कालिख पोतने का प्रयास करते हैं. परन्तु वे स्वयं अपनी ही कूपमंडूकता सिद्ध कर देते हैं. किसी भी संस्कृति का सही परिचय परिधान विशेष अथवा उसमें व्याप्त कुछ बुराइयों के आधार पर नहीं मिलता. क्या देव-संस्कृति कहलानी वाली संस्कृतियों में भी राक्षस, पापी तथा बलात्कारी नहीं हुए? क्या सर्वश्रेष्ठता का दावा ठोकने वाली विश्व की महानतम संस्कृतियों में भी जगत को लज्जित कर देने वाले कुकर्मों का कोई प्रमाण नहीं?
यहाँ किसी एक संस्कृति के विरोध में हमारी दूसरी संस्कृति का समर्थन या विरोध नहीं किया जा रहा बल्कि यह आग्रह किया जा रहा है कि हम संस्कृतियों और मनुष्यों के अध्ययन की क्षमता का विकास करें न कि जज बनकर उन पर कोई फैसला सुनाएं. हम ‘ओपिनियेटेड’ होकर तो सड़क पर पड़ी धूल का विश्लेषण भी नहीं कर सकते तो किसी संस्कृति की समीक्षा क्या ख़ाक करेंगे? प्रत्येक संस्कृति, प्रत्येक सभ्यता(यदि उसके जनक ईश्वर हैं जो कि हैं ही) अपने आप में कुछ अनुपम और अद्वितीय है. उसका इस पृथ्वी पर जीवित होना ही इस बात का प्रमाण है कि मनुष्यता के विकास में उसकी कोई भूमिका तय है. और जब मल-मूत्र से भरा मनुष्य भी अपनी सद्गुणों के कारन पूजा जा सकता है तो भला कोई संस्कृति विशेष ही शाप क्यों भोगे? यह सोंचना भी हास्यास्पद है कि कोई संस्कृति जिसकी छत्र-छाया में एक पूरी सभ्यता सांस ले रही है. वह संस्कृति सिरे से ही निकृष्ट है. फिर तो वह पूरी मानवीय सभ्यता और विश्व के विकास में उस सभ्यता का योगदान निरर्थक ही सिद्ध हुआ.
आज वो समय है जब राजनैतिक, धार्मिक तथा आर्थिक मोर्चों पर लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं. ऐसे समय में यदि हम अपराधों और मानवीय पतन को संस्कृति और धर्म के चश्में से देखते हैं तो हम इतिहास के गुनाहगार सिद्ध होंगे. इतिहास हम पर थूकेगा. विश्व की सभी संस्कृतियाँ उतनी ही पवित्र हैं जितनी कि गंगा. गंगा मैली होकर भी माँ है और यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए. मीमांसा अवश्य कीजियेगा. 
Manish Pandit
Poet, Writer & Teacher
9993173208
shourya.man.mp@gmail.com

Saturday 16 August 2014

Ankit: The Author of Atrocities



सिविल परीक्षाओं में भाषा का महत्त्व

                       -    अंकित झा 

   बात भाषा को उसके अधिकार मिलने का नहीं है वरन बात उस ऐतिहासिक दुष्कृत्य का है जो कभी किया गया था. ये वो दुष्कृत्य था जिसका दंड कई पीढ़ियों ने भुगता अब समूची व्यवस्था भुगत रही है. प्रश्न अंग्रेजी के प्रभुत्व का तो है ही नहीं, और न कभी था. प्रश्न है, अपने देश की गरिमा का. जिसे पीछे छोड़ने का दुस्साहस किया गया है, आज से नहीं सदियों से. अपने गौरव को माटी के भाव तौलने के दोषी कौन? हम. अतः अंग्रेजी हम पर हावी नहीं हुआ, वरन हमने उसे गले लगाया.
 
आदर्श के अंत से विनाश का प्रारम्भ होता है. फिर वो कोई सा भी आश्रम हो, समाज में एक सत्य निहित है कि अपने कर्म पर किसी की तानाशाही नहीं सहनी चाहिए. भारतीय समाज के प्रारम्भ से ही जीवन में आश्रम के महत्त्व को समझाने व मनुष्य के समाज से सम्बन्ध स्थापित करने में इसकी महत्ता को बरकरार रखने का प्रयास किया है. रामायण को ही ले, गुरु वशिष्ठ के वचन सुन राम के अन्दर समाज का मोह समाप्त हो गया, सभी लालसाएं मिट गयी, ना राज करने की इच्छा और ना ही राजमहल में निवास करने की. युवा राम के वैभव के प्रति इस उपेक्षा से दशरथ भयभीत रहा करते. दोष किसका था? अवश्य ही गुरु वशिष्ठ का. शिक्षा देने में इतना अनुभव होने के बावजूद भी, राम को जीवन दर्शन में कर्म के प्रभाव को समझाने में विफल रहे थे, सिर्फ धर्म तथा कामनाओं से मुक्ति की ही शिक्षा दे पाएं. राम से समाज को काफी आशाएं थी, शिक्षा की अपूर्णता आशाओं के वध की ओर बढती दिखी. गुरु विश्वामित्र आयें,राम को जीवन दर्शन भी बताया, कर्म की सिद्धि को भी बताया, अस्त्र ज्ञान भी दिया, निपुण भी किया, तथा अभ्यास हेतु अपने साथ वन भी ले गये जहां राक्षस उनके यज्ञ में बाधा डाला करते थे, वहाँ पर उन्होंने राक्षसी ताड़का का वध भी किया. चूँकि धर्म के अनुसार स्त्री का वध एक अपराध है परन्तु गुरु विश्वामित्र के समझाने के पश्चात् वो इस बात को तैयार हुए की समाज हित में किया गया कर्म कभी अधर्म नहीं हो सकता. अतः शिक्षा के सभी पहलुओं से उन्होंने अपनी राह सुनिश्चित की. अब उनके अन्दर जीवन के प्रति प्रेम भी था, विलासिता के प्रति उपेक्षा भी, कर्म की समझ तथा धर्म का ज्ञान. और किसी विद्यार्थी को क्या चाहिए? 

आज की शिक्षा व्यवस्था से तनिक तुलना कीजिये, क्या यहाँ कर्म की समझ देने का प्रयास होता है, या धर्म का ज्ञान दिया जाता है, विलासिता की उपेक्षा तो दूर की बात, सांसारिक पण्यों में इस तरह विद्यार्थी को लिप्त कर दिया गया है कि अब यदि इस गड्ढ़ से निकले तो सामने महागड्ढ़ फैला है. महागड्ढ़ का अर्थ होता है, सरिता के सफ़र का वह समय जब एक ऊंचाई से निरंतर गिरने के पश्चात् उस जगह पर एक बहुत बड़ी खड्ड बन जाती है, विद्यार्थी जीवन भी यही है, एक ही तरह की शिक्षा प्राप्त करते करते 16 वर्ष के अपने किशोर आश्रम में अपने मन में एक अजीब सी महागड्ढ़ निर्मित कर लेता है. ये खड्ड विलासिता तथा सांसारिक उपेक्षाओं के किले पर निर्मित होता है. भारत को एक परिवर्तन चाहिए, शिक्षा के क्षेत्र में, शिक्षण के क्षेत्र में, शैक्षणिक गुणवत्ता के क्षेत्र में. कर्म व धर्म के मध्य झूलती शिक्षा व्यवस्था किसी टूटी हुई डोर के आखिरी सिरे को पकड़े लटकता सा प्रतीत होता है. विद्यार्थी होनहार है, परन्तु लाचार है, एक नई पीढ़ी का ऐसा अनावरण!! हे शिव! गाय के निबंध से जीवन शुरू करने वाला विद्यार्थी आज कंप्यूटर में निपुणता ले लेता है परन्तु शिक्षा के तीन प्रमुख उद्देश्य लेखन, वाचन तथा स्मरण को समझने में नाकाम रहता है. किसी समाज को और क्या चाहिए? एक ऐसा भविष्य जो समस्याओं से पूर्व उसका समाधान जानता हो, परन्तु नई पीढ़ी तो समस्याओं से भी अनभिज्ञ है तथा समाधान से भी. अंतर्मन तो दूर ह्रदय में झाँकने को कोई तैयार नही, कैसे चेतना का विकास किया जाए, कैसे संसार को हम उदाहरण दे सकेंगे, कि क्या पीढ़ी रची है हमने

पीढ़ी रचने में कहीं चूक तो नहीं हो रही है हमसे? कभी कभी सोंच के रूह काँप उठता है कि इस देश के भविष्य का क्या होगा यदि यही हालात रहे तो. ऐसी पीढ़ी जो हालात को बदलने पर नहीं वरन अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करती है. अनुकूलता कतई बुरी बात नहीं है, परन्तु ऐसे समय में जब दौर प्रतिस्पर्धा से कई कोस आगे निकल चूका है उस समय ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करना लज्जित करती है. बात भाषा को उसके अधिकार मिलने का नहीं है वरन बात उस ऐतिहासिक दुष्कृत्य का है जो कभी किया गया था. ये वो दुष्कृत्य था जिसका दंड कई पीढ़ियों ने भुगता अब समूची व्यवस्था भुगत रही है. प्रश्न अंग्रेजी के प्रभुत्व का तो है ही नहीं, और न कभी था. प्रश्न है, अपने देश की गरिमा का. जिसे पीछे छोड़ने का दुस्साहस किया गया है, आज से नहीं सदियों से. अपने गौरव को माटी के भाव तौलने के दोषी कौन? हम. अतः अंग्रेजी हम पर हावी नहीं हुआ, वरन हमने उसे गले लगाया. और आज भी उसके तलवे चाट रहे हैं, यह रिश्ता ग़ुलामी कब बन गया, किसी को ज्ञात नहीं. परन्तु सत्य तो यही है. हमारी भाषा अंग्रेजी हो, कोई दुःख नहीं परन्तु हमारी सोंच अंग्रेजी नहीं होनी चाहिए. परन्तु मनुष्य तो मनुष्य ठहरा, जिस भाषा में बोलता है उसी में सोंचने भी लगता है. हमारी सोंचने की भाषा भी अंग्रेजी हो गयी, फिर यह तो घुलामी ही हुई न? 

हालिया उदाहरण ले, यूपीएससी के परीक्षा में भाषा तथा सीसैट को लेकर हुए विवाद में मसला जो सामने आया हो परन्तु, बात इतनी खटक गयी कि अनिवार्यता के नाम पर अंग्रेजी को बढ़ावा दिया जाने लगा. सीबीएससी के दसवी के बाद के प्रकरण को कौन नहीं जानता, या फिर कहें कि आठवीं के बाद के प्रकरण को. अंग्रेजी अनिवार्य परन्तु हिंदी नहीं. कोई बात नहीं. उतना उचित था परन्तु, यह दौर किसी भाषा को बढ़ावा देने का नहीं बल्कि अपनी भाषा के संरक्षण का है. अंग्रेजी विदेशी नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय भाषा है. अंग्रेजी सीखना अंतर्राष्ट्रीय बनना है. अंग्रेजी को बढ़ावा देकर हम अवश्य ही अपने विदेशी रिश्तों को संवार सकते हैं. मैथिली में एक कहावत है, “पेट में खर नइ, सिंग में तेल” जिसका अर्थ ये हुआ कि अपने मवेशी को खाना भले ही न दे परन्तु उसके सिंग में जरुर तेल लगाते रहा जाए. खाने को भोजन हो न हो परन्तु ठाठ बाठ में कमी नहीं आनी चाहिए. अजीब बात है न, गुर्दे खराब परन्तु मूंछों के ताव में कोई कमी नहीं. अंग्रेजी सीखना अच्छी बात है, अंग्रेजी को अपनाना और भी अच्छी बात है परन्तु यदि उसकी कीमत हिंदी का वध है तो कतई नहीं. हमारे देश में 80 के दशक तक हिंदी में पीएचडी  शोध कार्य देने की अनुमति नहीं थी, अफ़सोस. फिर अनुमति प्राप्त हुई, परन्तु यह अनुमति नाकाफ़ी रही. यह कोई मुहीम नहीं है, हिंदी को बचाने हेतु, बल्कि एक प्रयास है, भाषा की सार्थकता को कायम रखने हेतु. ये आन्दोलन मात्र दिल्ली में ही हिन् हो रहे हैं वरन इलाहाबाद, बेंगलुरु, हैदराबाद आदि शहरों में भी आन्दोलन की सुगबुगाहट है.  

अब प्रश्न कि सिविल परीक्षाओं में भाषा का क्या महत्त्व? महत्त्व है, जिस समाज से हम आते हैं, जहां पर प्रधान सेवक सेवा के लिए जाते हैं, उसे समाज की आत्मा कहते हैं, अंग्रेजी उस अपनेपन को समझा नहीं आती है. ऐसे आन्दोलन से भाषा को उसका अधिकार मिलने से रहा. पिछले वर्ष के नतीजे देखे जाए, 1122 चुने हुए परीक्षार्थियों में हिंदी पृष्ठभूमि वाले नाममात्र के बचे हैं, वही अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ से चयनित विद्यार्थियों की संख्या 30 से भी कम रही जिसका सीधा अर्थ ये है कि कहीं न कहीं तो कमी है. ये कमी कहाँ है इसका पता लगाना होगा. ये कमी 2011 के बाद ही क्यों उत्पन्न हुआ है?  2011 में नयी व्यवस्था के आने के बाद से ही विद्यार्थियों में असंतोष बढ़ने लगा था, कारण स्पष्ट है कि विद्यार्थियों अनुभूति के साथ मज़ाक किया गया. सीसैट का अर्थ ‘सिविल सर्विसेज एप्टीटूड टेस्ट’ है, छात्रों का लक्ष्य है इस टेस्ट को हटाने की. यह टेस्ट मानसिक कुशलता, बौद्धिक रुझान तथा सामान्य ज्ञान के परीक्षा. परन्तु मूलतः अंग्रेजी में तैयार हुए इस प्रश्नों का अनुवाद इतना खराब होता है कि छात्र उसे समझ ही नहीं पाते हैं. तथा 200 अंकों के प्रश्न पात्र में लगभग 30 अनिवार्य अंक अंग्रेजी के होते हैं, जिसपर की छात्रों को ऐतराज़ है. क्या युएनओ से आई किसी चिट्ठी का महत्त्व देश के भूखे किसान के गुहार से अधिक महत्वपूर्ण है? यूँ तो सरकारी सेवकों को टाइपिंग का भी काम पड़ता है, तो क्या टाइपिंग का भी टेस्ट लिया जाए, क्या उन्हें ड्राइविंग आना भी अनिवार्य होना चाहिए. यह सब एक भौकाल है, जिसे भ्रामकता की तरह फैलाया जा रहा है. इन कामों के लिए अब तक कुछ अन्य लोग रोज़गार में लगाया जाता रहा है, एक और काम के लिए बढ़ जाएगा. अंग्रेजी का अनुवादक रख दिया जाएगा उस एक चिट्ठी के लिए, एक चिट्ठी के लिए क्या छात्रों के भविष्य से खेलना उचित होगा? अब समय है कि इस तरह के अनियमितताओं को दूर कर भाषा के सही स्वरुप को दर्शन देने हेतु बाध्य किया जाए. हमें आवश्यकता है, गुरु विश्वामित्र की, जो देश में राम जैसे शिष्य पुनः ला सके जो सेवा के नए आयाम गढ़ सके. 

Ankit Jha
Writer,
Student, University of Delhi
9716762839
ankitjha891@gmail.com


Monday 4 August 2014

मनीष: मन के मत पर


डोर
                                                           - मनीष पंडित

पिताजी के चश्मे
पर चढ़ी हैं परतें
वर्षों के अनुभव की
सघन इतनी हैं कि
देख नहीं पाती हैं
उदय नवयुग के सूरज का
पीढ़ियों के अंतर
इक छोर पर पिता
दूसरे पर संतान
मिल ही नहीं पाती
दो धाराएं एक ही
जीवन सरिता की
दो सभ्यताएं
दो संस्कृतियां
साँस लेती हैं
एक ही छत के नीचे
टकराती हैं, झगड़ती हैं
फिर भी अलग नहीं होती
छोर अलग होने से
डोर खंडित नहीं होती ।

Manish Pandit
Poet, Writer & Teacher
9993173208
shourya.man.mp@gmail.com

Friday 1 August 2014

सत्य वचन


लापरवाही तथा समस्या के मध्य 

                            - सत्यानन्द यादव 

बिमारी भी सरकारी और खर्च भी. भुगता किसने? सरकारी अस्पताल के सुविधाओं से अनभिज्ञ मरीज मजबूर हो दिन काटते रहते हैं. न ज़िन्दगी की उम्मीद न मौत की चाहत.

पिछले तीन वर्षों से मैं शाहदरा के निकट विश्वास नगर में रह रहा हूँ. जब मैं यहाँ आया था उस समय यहाँ आबादी काफी कम थी, ऐसे में बिमारियों तथा बीमारों की संख्या भी कम थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह आबादी बढ़ी है, उसे संख्या में व्यक्त नहीं किया जा सकता है. आबादी के मुकाबले सुविधाएं उतनी तेजी से नहीं बढ़ पायी है. इलाके की गन्दगी किसी वर्णन का मोहताज़ नहीं है, गंदगी के कारण सैकड़ों बीमारियाँ अपने पैर पसार चुकी है. खास कर बरसात के मौसम में तो ये इलाका किसी नरक से कम प्रतीत नहीं होता है. इलाके की नालियों की सफाई कभी नहीं होती है, और बरसात के दिनों में पानी भरने से सड़क का पानी घरों में घुस जाता है. ये पानी नाली तथा बरसात के पानी का संगम होता है, जो घरों में बीमारयों के निमंत्रण के साथ प्रवेश करती है. न किसी को इलाके में साफ़-सफाई की सुध है और ना ही बरसात के दिनों में होने वाली बिमारियों की. इस पानी में जीवाणु की संख्या भी काफी अधिक होती है, साफ़ पानी के संपर्क पर डेंगू के मच्छर को जन्म देते हैं. तो कहीं गंदे पानी में मलेरिया के मच्छर पैदा हो जाते हैं.

असली लापरवाही शुरू होती है, जब बीमार को अस्पताल लेकर जाया जाता है. डॉक्टरों द्वारा मरीज के मन में डेंगू का खौफ पैदा कर दिया जाता है, इतना खौफ की वो अपने अंतिम समय का दर्शन करने को विवश हो उठता है. एक स्वस्थ मानव के शरीर में प्लेटलेट्स की संख्या तो घटती-बढती रहती है, इस घटने को डॉक्टर जम कर इस्तेमाल करते हैं, मरीजों को मूर्ख बनाने के लिए. बरसात के प्रारंभ से ही डेंगू-मलेरिया का डर इस तरह मरीज के मन में बिठा दिया जाता है, कि हर बुखार स्वतः ही डेंगू या मलेरिया हो जाता है. अस्पताल प्रशासन का मरीजों के प्रति रवैये का अब क्या कहना. मजबूरी को इस तरह अपना हथियार बना कर, अपनी जेब तन्दरुस्त कर लेते हैं. अर्थात चिट भी अस्पताल की और पट भी. बिमारी भी सरकारी और खर्च भी. भुगता किसने? सरकारी अस्पताल के सुविधाओं से अनभिज्ञ मरीज मजबूर हो दिन काटते रहते हैं. न ज़िन्दगी की उम्मीद न मौत की चाहत. जिला अस्पताल का रुख वैसे हो गरीब ही करते हैं. अस्पताल के व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाना अनिवार्य हो जाता है, जब मरीजों को आश्रय देने हेतु पर्याप्त बिस्तर तथा डॉक्टर नही हो पाते हैं. हालात ये हो जाते हैं कि मरीजों को या तो ज़मीन पर आश्रय दिया जाता है या भर्ती करने से ही मना कर देते हैं. यह एक सच्चाई है, हमारे तेजी से बढ़ते देश के राजधानी की.

 जब जलजनित रोग ना हो, तब डेंगू अपने दंश से सभी को डराए रखता है, और उस समय स्थिति और भी विकराल हो जाती है. डेंगू दस लोगों को होता है, और मरीजों की संख्या सैकड़ों बताई जाती है. यदि इस तरह मरीजों की संख्या बढ़ने लगे तो यह भी डॉक्टरी पेशे पर एक धब्बे की तरह ही है. एक महत्वपूर्ण बात और, शहर के कई इलाके ऐसे हैं, जहां बरसात के दिनों में हफ़्तों तक जलभराव रहता है. उसके निकासी की कोई व्यवस्था ही नहीं की गयी है और ना ही बीमारी वाले मच्छरों के रोकथाम की. स्वास्थ्य विभाग भी न जाने क्यों बिमारी के फैलने तक सजग होने का इंतज़ार करती है. हालाँकि अस्पतालों में जागरूकता के लिए प्रयास किये जाते हैं, जो कि नाकाफी है. मरीज़ परेशान हैं, धोखों से, लापरवाही से, महंगाई से, डॉक्टर के रवैये से. इस रात की कोई सुबह नहीं. डेंगू हुआ है, ईश्वर से प्रार्थना करो कि सामने वाले डॉक्टर को ईश्वर की याद आ जाए और ईश्वर के लिए मरीज़ को बख्श दे..

पुनश्च:- बरसात तो हर वर्ष होती है, बिमारी भी. बिमारी को रोकना होगा, बरसात को नहीं. 

Satyanand Yadav
Student, University of Delhi
9718152670
satyamac.du@gmail.com

Tuesday 22 July 2014

विद्रोही विचार



क्यों आखिर क्यों?

                                                - विनीत वर्मा 

क्या मनुष्य को मनुष्य के अंत का अधिकार होना चाहिए? यदि हमें जीवन का मौलिक अधिकार है, तो मृत्यु का क्यों नहीं? जो कार्य उसका जीवन नहीं कर पाया मृत्यु क्या कर पायेगा? एक मनुष्य के साथ उसके कई रिश्ते मरते हैं, कई सपनें मरते हैं. आत्महत्या एक जुर्म है तथा इच्छामृत्यु एक पाप.

किसी भी काव्य में किये जाने वाले वर्णन से कई सुंदर है, मानव जीवन. ईश्वर की सबसे उत्तम कृति, विश्व इतिहास की सबसे प्रगतिशील प्रजाति, मनुष्य. सभी से उत्तम, सभी में श्रेष्ठ. जितनी सुन्दरता से ईश्वर ने मानव की रचना की है, उससे कई अधिक निर्दयता से मानव के विधान को रचा गया. क्लेश, सत्य, हिंसा, धर्म, कर्तव्य, पीड़ा, सुख आदि. आदी से अनादि तक. सर्वदा. सभी मानव के जीवन का हिस्सा होती हैं, ये सब. भाग्य का निर्माण करके भेज तो दिया इस मृत्युलोक में परन्तु भाग्य का सामना करने की क्षमता सब में अलग अलग विकसित की. तभी तो कुछ असफलताओं से हार ना मानकर आगे बढ़ते हैं तो कुछ इसकी पीड़ा से तड़पते रहते हैं, कुछ कष्ट सहन नहीं कर पाते और इहलीला समाप्त कर लेते हैं. क्यों करते हैं लोग आत्महत्या? क्यों स्वयं ही ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ कृति का विनाश कर देते हैं. क्यों अपने इस अनमोल जीवन का कद्र नहीं कर पाते हैं? क्यों इस सुंदर दुनिया को इस तरह त्याग देते हैं?

आत्महत्या के कई कारण हैं, कई. परन्तु कोई भी कारण ऐसा नहीं कि मनुष्य को ईश्वर  के द्वारा दी गयी ज़िन्दगी छीनने का अधिकार दे दे. ज़िन्दगी मिटाने का. कोई भी ऐसा कारण नहीं है कि जो मनुष्य को इस दुनिया से इतनी दूर ले जाने की अनुमति देता हो. काफी दूर. इतनी दूर कि एक माँ की बूढी आँखें भी उसे ढूंढ नहीं पाती, वो माँ जिसके आँचल कभी उसके आंसुओं से भींग गये थे, आंचल को देख के आंसू बहाने पर विवश हो रही है. वो माँ जिसने कभी हाथों से बच्चे को खाना खिलाया था, कभी छाती से लगाकर सुलाया था, आज वही उन्ही हाथों से अपनी छाती पीट पीट कर रो रही है, उसकी ममता आज रूक ही नहीं पा रही है, बार बार छलक आती हैं. पत्नी की वो नाम आँखें जो उसे ढूंढती रहती हैं, तो कभी पिता के वो झुके कंधे जिसपे बैठके दुनिया की भीड़ में उसने पहली बार प्रवेश किया था. जीवन एक संघर्ष है, सब जानते हैं. संघर्ष में किसी हार का अर्थ कतई मृत्यु तो नहीं हो सकता.

क़र्ज़ के बोझ तले दबा किसान, पढाई में पिछड़ चूका छात्र, जिम्मेदारी न निभा पाने वाला पिता, प्रेम में हरा प्रेमी सभी अपने जीवन को मूल्यहीन समझ लेते हैं. आत्महत्या के साथ साथ एक नया शिगूफा इच्छा मृत्यु भी समाज में छोड़ा जा रहा है. 2011 में अरुणा शान्बाग के याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ये निर्देश दिए थे कि भारत में इच्छामृत्यु को वैद्य न किया जाए. वहीँ पिछले कुछ दिनों में फिर से यह मुद्दा तूल पकड़ता दिख रहा है. आत्महत्या तथा इच्छामृत्यु में काफी अंतर है, परन्तु दोनों की ही अनुमति किसी जीवन के समाप्ति से होती है जो मानवता की कसौटी पर पूर्णतः गलत है. संजय लीला भंसाली की फिल्म, "गुजारिश" जिसमें इच्छामृत्यु अर्थात यूथनेसिया के मुद्दे को उठाया गया था. इस फिल्म में यूथेनेसिया को नैतिक रूप से सही भी ठहराया गया, जिसके खिलाफ कई शिकायतें भी की गयी. क्या मनुष्य को मनुष्य के अंत का अधिकार होना चाहिए? यदि हमें जीवन का मौलिक अधिकार है, तो मृत्यु का क्यों नहीं? जो कार्य उसका जीवन नहीं कर पाया मृत्यु क्या कर पायेगा? एक मनुष्य के साथ उसके कई रिश्ते मरते हैं, कई सपनें मरते हैं. आत्महत्या एक जुर्म है तथा इच्छामृत्यु एक पाप. भले ही इसे यथासंभव कैसे भी तर्क के साथ प्रस्तुत किया जाए नैतिक रूप से गलत है.

मनुष्य इन सब बातों से अवगत है, परन्तु विनाश के प्रहर में कब उसने चेतना से काम लिया है? दुनिया में कोई भी गलती असफलता ऐसी नहीं जिसके लिए आत्महत्या सर्वश्रेष्ठ प्रायश्चित्त हो. इस सोंच में परिवर्तन लाना होगा, क्योंकि मानवता कभी मानव पर बोझ नहीं बननी चाहिए. करुणा से बढ़कर कोई सफलता नहीं होती, माँ की गोद में यदि उसके बेटे का मृतशरीर पड़ा हो तो उस पीड़ा का वर्णन कोई भी नहीं कर सकता है.

पुनश्च : - असफलता एक चुनौती है, आत्महत्या बुज़दिली. सफलता एक चाहत है, आसानी से कहाँ मिलती है, कुछ दिन तो बिताओ प्रयास में.    

Vineet Verma
Student, University of Delhi
9899472819
vineetcool94@gmail.com

Saturday 5 July 2014

A Nation For Women (Arsh Hashmi)


 



On 26th May, 2014 when the PM and his cabinet took their oath of office, 6 out of the 23 minister inducted in the cabinet interestingly happened to be women. This accounted for a significant quarter of a share of the cabinet. In addition to the substantial share, these ladies have been given relatively important and powerful portfolios like Ministry of External Affairs, Ministry of Human Resource Development etc. This in no doubt is a commendable move by the government in the direction of empowering our women. But the question which still persists: Whether the presence of these women in the government will usher in any change in the ignominious condition of millions of women in this nation?



Women in the Indian society have been victims of humiliation, torture, exploitation for as long as we have written records of social organization. She is throttled to death for giving birth to a girl, immolated for dowry, exploited by the satanic lusts of men and subjected to countless other savageries. Hearing lewd comments and even enduring lecherous contacts of even her relatives are a matter of routine for her. She faces all the brutalities with none to hear her wail. According to the Delhi Police this year from 1st January to 30th April, an average of 6 and 14 cases of sexual harassment and molestation were registered daily. Compared to the previous year, the increment is of 32%. 

 
The police claims most of the cases of rapes have been solved with the culprit convicted, the government claims that strict laws have been enacted, statistics say that education and economic independence of women is rising. In-spite of these tall and innumerable claims atrocities against women still multiply alarmingly.


We need a holistic and radical approach to secure our women. Every individual, family, society should take the onus of safeguarding the rights of women instead of passing the buck to the government and police. Every act that breaches women’s security should be incriminated by us. The offender should be convicted by the society even before law. Instead of the victim, he should feel ashamed of facing the society. Families should instill in their children with moral values, ethics, culture and a good social behavior towards women.


The government on their part should begin with taking concrete steps to preserve the rights, honor, and dignity of every woman. This should include scrapping of old and ineffective laws, passing firm and stringent laws, setting up fast track courts to expedite the protracted judicial process, making the police more accountable. Exemplary, quick and deterrent punishments should be meted out to the guilty to develop fear and terror in the minds of everyone who sees women as an object to be used. The government should exercise a degree of control and censorship over the media to curb the commodification of women through the display of voluptuous and vulgar videos. These measures should implemented swiftly and seriously.
 As far as the ladies in the cabinet are concerned, they have a greater responsibility of living up to the expectations of women in this country. Hope with the collective effort of we individuals, they make a better, healthier and secure nation for women.
 
 

 
 
 
 
Arsh Hashmi
( Student , University of Delhi)

Contact- 08745922774
E-mail - arsh.hashmi01@gmail.com